________________
ने विभिन्न युक्तियों से संघश्री को समझाना शुरू किया। विभिन्न तर्क दिए। अन्तिम तर्क यह दिया कि राजा ने इन्द्रजाल के सहारे उसे भ्रमित किया है। विभिन्न कुतर्कों के जाल में फंसकर संघश्री के हृदय में उपजा जिन-संस्कार का कोमल कोंपल नष्ट हो गया और उसने अपने मन को पुनः अपनी ही परम्परा पर सुदृढ़ बना लिया। उसने अपने गुरु को वचन दिया कि प्राण देकर भी वह जिनत्व को अंगीकार नहीं करेगा।
दूसरे दिन राजसभा जुड़ी। मंत्री संघश्री अक्षवेदना का बहाना करके सभा में नहीं गया। राजा ने मंत्री को राजसभा में बुलवाया। राजाज्ञा का उल्लंघन संघश्री के लिए संभव नहीं था। आंखों पर पट्टी बांधकर वह राजसभा में उपस्थित हुआ। राजा ने संघश्री का विशेष बहुमान किया और कहा, मंत्रिवर! कल मुनिदर्शन के पूरे घटनाक्रम का अपने मुख से वर्णन करो! संघश्री ने अनजान बनकर कहा कि उसने किसी मुनि के दर्शन नहीं किए। संघश्री के असत्य भाषण को सुनकर राजा चकित रह गया। उसने संघश्री को समझाया और कहा कि कल उसने चारण-मुनियों के दर्शन राजमहल की छत पर किए थे। वह कुछ भी न छिपाए और जो देखा तथा सुना सब यथावत् कहे। संघश्री ने कहा, वह सब इन्द्रजाल था। इन्द्रजाल में अकल्पित और असंभव सब दिखाया जा सकता है। यथार्थतः मैंने कुछ नहीं देखा। राजा चाहते हैं कि मैं जिनधर्म को अंगीकार कर लूं। पर अमृततुल्य अपने धर्म का परित्याग करके कपोल-कल्पित जिनधर्म को मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा।
राजा को संघश्री के मिथ्या और आरोपजनक संभाषण पर बड़ा खेद हुआ। उसी क्षण एक चमत्कार यह हुआ कि मिथ्या संभाषण और जिनत्व के प्रति प्रलाप-स्वरूप कथन से संघश्री की कल्पित अक्षवेदना यथार्थ बन गई। वह पीड़ा से तिलमिलाने लगा। उसे दिखाई देना बन्द हो गया। उसकी आंखें कोटरों से बाहर निकल आईं।
राजा ने संघश्री को पुनः सावधान किया कि वह जिन-प्रलाप का प्रायश्चित्त कर ले। परन्तु संघश्री की तो बुद्धि ही विभ्रमित बन गई थी। पीड़ा से तिलमिलाते हुए भी उसने जिन-प्रलाप करना जारी रखा। आखिर शासन-संरक्षिका देवी ने संघश्री को उसके आसन से भूमि पर लुढ़का दिया। रक्तवमन करता हुआ संघश्री मरण-शरण हो गया।
उपस्थित सभासदों ने संघश्री की हठधर्मिता की निंदा की और जिन-धर्म की प्रशस्तियां कीं। सभी सभासदों ने जिनधर्म को ग्रहण किया। पूरे नगर और राज्य में जिन-धर्म की प्रभूत प्रभावना हुई।
महाराज धनद जिनधर्म की प्रभावना से तो हर्षित थे पर संघश्री की हठ से व्यथित थे। उनका चित्त वैराग्य से पूर्ण हो गया। वे प्रव्रजित हो गए। निरतिचार संयम की आराधना से वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। विमलमती ने भी प्रव्रज्या का पालन कर स्वर्ग पद पाया।
- बृहत्कथा कोष, भाग 1 (आचार्य हरिषेण) (ग) धनद
कनकपुर नगर के कोटीश्वर श्रेष्ठी रत्नसार का इकलौता पुत्र । किसी समय जब वह नगर के चौराहे से गुजर रहा था तो उसने एक व्यक्ति को एक गाथा विक्रय करते देखा। धनद उस व्यक्ति के निकट आया और उसके हाथ में रहे हुए कागज के टुकड़े पर अंकित गाथा को पढ़ा। गाथा का भावार्थ था-विधि के लेख के अनुसार ही संसार में सब कुछ होता है, यह जानकर धीर पुरुष कभी भी कायर नहीं होते।
वह गाथा धनद को बहुत पसन्द आई। उसने एक हजार स्वर्णमुद्राएं देकर वह गाथा उस व्यक्ति से ... 266 ..
... जैन चरित्र कोश...