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धनद को बन्धनों में जकड़कर शीघ्र उसके समक्ष उपस्थित किया जाए। राजा के ऐसा आदेश देते ही एक
यह घटी कि सहसा नगर में आग लग गई। पूरे नगर में त्राहि-त्राहि मच गई। लोग घरों से निकलकर खुले स्थान पर एकत्रित हो गए। लोगों ने धनद को अग्नि की सूचना दी और बाहर सुरक्षित स्थान पर जाने को कहा। पर धनद ने अपने नियम की बात दोहरा कर बाहर आने से इन्कार कर दिया। __चमत्कार यह घटित हुआ कि पूरा नगर जलकर राख हो गया, एकमात्र धनद का घर ही सुरक्षित रहा। अषाद में डूबे राजा और प्रजा धनद के धर्म प्रभाव को देखकर दंग थे। सभी ने उसकी मुक्त-कण्ठ से स्तुतियां की। धनद ने अपना संचित समस्त धन नगर के पुनर्निर्माण हेतु अर्पित कर दिया। नगर में उसे देवतुल्य श्रद्धा और सम्मान प्राप्त हुआ। राजा और प्रजा ने धनद के धर्म से चमत्कृत होकर जिन धर्म अंगीकार किया। पुरा नगर जिनोपासक बन गया।
धनद एकनिष्ठ श्रद्धा से श्रावक धर्म का पालन कर आयु पूर्ण कर अष्टम् देवलोक में देव बना। देव भव से च्यव कर वह मनुष्य भव धारण करेगा और सिद्ध होगा।
-जैन कथा रत्न कोष, भाग 4/श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र (रत्न शेखर सूरिकृत) (ख) धनद
वेणातट नगर का मुण्डित वंश का न्यायपरायण और अनन्य जिनोपासक नरेश। उसके मंत्री का नाम संघश्री था और वह अन्य मतावलम्बी था, जिनधर्म पर उसकी आस्था न थी। राजा धनद के मन-प्राण में जिन धर्म रचा-बसा था और वह जानता था कि जिनत्व ही कल्याण का एकमात्र मार्ग है। राजा चाहता था कि उसका मंत्री भी जिनधर्म के महत्व को समझे और आत्मकल्याण का पथ-प्रशस्त करे। अनेक प्रसंगों में राजा मंत्री को जिनधर्म के लिए प्रेरित किया करता था, पर संघश्री की कठोर हृदय-भूमि पर जिनत्व अंकुरित नहीं हो पाता था।
संघश्री की बहन विमलमती महाराज धनद की पटरानी थी। इसीलिए संघश्री का महलों के भीतर तक भी निराबाध आवागमन था। एक बार राजा धनद अपनी पटरानी और संघश्री के साथ राजमहल की छत पर टहल रहा था। आकाशमार्ग से चारण मुनि गमन कर रहे थे। राजा की दृष्टि मुनियों पर पड़ी। उसका हृदय श्रद्धाभाव से भर गया। राजा की श्रद्धा-भक्ति से बंधे मुनि महल की छत पर उतर आए। राजा की प्रार्थना पर मुनियों ने संक्षेप में धर्म का सार निरूपित किया। तब राजा ने मुनियों से विशेष प्रार्थना की कि विशिष्ट धर्मदेशना से वे उसके मंत्री संघश्री को जिनत्व का महत्व समझाएं। मुनियों ने संघश्री को लक्ष्य कर जिनत्व की सूक्ष्म व्याख्या प्रस्तुत की। मुनियों ने संघश्री की प्रत्येक जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत किया। उससे संघश्री का हृदय भी जिनश्रद्धा से पूर्ण हो गया। उसने मुनियों से जिनधर्म स्वीकार कर लिया।
मुनि विदा हो गए। राजा धनद अति प्रसन्न हुए। उन्होंने संघश्री से कहा, आज से तुम मेरे साधर्मी बन्धु हुए। कल राज्यसभा में मैं तुम्हारा विशेष स्वागत अभिनंदन करना चाहता हूँ, आशा है तुम स्वयं अपने मुख से मुनियों के पदार्पण, उनकी उपदेश-विधि और तुम्हारे सम्यक्त्व ग्रहण की पूरी घटना राजसभा में वर्णित करोगे। संघश्री ने वैसा करने का वचन राजा को दिया और अपने घर चला गया। ___ संध्या ढलते-ढलते संघश्री के गुरु को सूचना प्राप्त हो गई कि संघश्री ने धर्म परिवर्तन कर लिया है। संघश्री उसकी सम्प्रदाय का बुर्ज था। उसने सोचा, संघश्री ने ही उसकी सम्प्रदाय को त्याग दिया तो उसका प्रभाव वेणातट से शून्य हो जाएगा। इस विचार के साथ गुरु संघश्री के पास पहुंचा। संघश्री बाल्यावस्था से उसे गुरु मानता आया था। एकाएक सम्बन्ध विच्छेद संभव न था। संघश्री ने गुरु का स्वागत किया। गुरु ... जैन चरित्र कोश ...
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