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धनकुमार ने पुत्रवत् प्रजा का पालन किया। सुदीर्घकाल तक राजपद भोगकर धनकुमार ने अन्तिम वय में अपने पुत्र को राज्य भार देकर मुनिदीक्षा धारण की। धनवती ने पति की अनुगामिनी बनकर साध्वी जीवन अंगीकार किया। शुद्ध संयम की आराधना करते हुए आयुष्य पूर्ण कर मुनि धनकुमार तथा धनवती सौधर्म कल्प में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर मध्य के सात भवों में पति-पत्नी रूप में साथ-साथ रहकर धनकुमार तथा धनवती क्रमशः अरिष्टनेमी और राजीमती के रूप में जन्मे । अरिष्टनेमी जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर हुए हैं।
धनचंद्र
प्रतिष्ठानपुर नगर के श्रेष्ठी धनसार का पुत्र । (देखिए - धन्य जी)
(क) धनद
चक्रपुर नगर का रहने वाला एक धर्मात्मा और धनी युवक। नगर नरेश हरिकेतु की राज्यसभा में उसे विशिष्ट पद प्राप्त था । राजा ने उसे रत्नपरीक्षक का सम्माननीय और दायित्वपूर्ण पद प्रदान किया था। राजा उसे प्रत्येक रत्न की परीक्षा पर रत्न का दशमांश मूल्य पारिश्रमिक के रूप में देता था। उससे धनद की समृद्धि बहुत बढ़ गई थी।
धनद को जैन धर्म के संस्कार पैतृक - परम्परा से ही प्राप्त हुए थे । यौवनवय में राजकीय सम्मान मिलने पर उसकी धर्मरुचि निरन्तर वर्धमान होती रही । गुरुदेव से उसने श्रावक धर्म अंगीकार किया। उसने विशेष रूप से देशावकाशिक व्रत की आराधना की। उसमें वह प्रतिदिन छोटे-छोटे नियम धारण करता और प्राणपण से उनका पालन करता ।
राजा धनद की धर्मनिष्ठा और प्रामाणिकता से चमत्कृत था । वह धनद को कोषाध्यक्ष नियुक्त करना चाहता था । तदर्थ उसने धनद की परीक्षा ली। उसने अपने अंतरंग व्यक्ति को धनदं की परीक्षा के लिए नियुक्त किया। राजा के उस व्यक्ति ने सभी की आंख बचाकर एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं के मूल्य का एक कंगन धनद के गृहद्वार के निकट डाल दिया । धनद की दृष्टि कंगन पर पड़ी। उसने राह चलते लोगों को रोक कर पूछना शुरू कर दिया कि जिस किसी का कंगन गिर गया है, वह इसे ले जाए। राजा के अंतरंग व्यक्ति ने धनद को समझाया कि कंगन उसी के घर के बाहर पड़ा है, अतः उसी का है। वह कंगन को ग्रहण कर ले। पर धनद ने परद्रव्य को लोष्ठवत् कहकर अस्वीकार कर दिया और अपना निश्चय दोहरा दिया कि वह इस कंगन को राजा को अर्पित करेगा, जिससे वास्तविक स्वामी को उसका खोया कंगन प्राप्त हो सके।
धनद को परीक्षा में उत्तीर्ण पाकर राजा ने उसे कोषाध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया। साथ ही उसे अपना मित्र भी मान लिया ।
एक बार संध्या-समय राजदरबार से लौटने के पश्चात् धनद ने देशावकाशिक व्रत की आराधनास्वरूप प्रतिज्ञा की कि वह प्रभात खिलने तक अपने घर से बाहर कदम नहीं रखेगा। संयोग से राजा को शिरःशूल हो गया । औषधोपचार विफल हो गए। किसी ने राजा को समझाया कि राजकोष में रोगहर मणि है, उसके स्पर्श से शिरःशूल समाप्त हो जाएगा। राजा को सुझाव उचित लगा और उसने अनुचर को आदेश दिया कि कोषाध्यक्ष को पूरी स्थिति कहकर मेरे समक्ष उपस्थित किया जाए। अनुचर ने धनद के घर पहुंचकर राजाज्ञा सुनाई। पर धनद तो प्रतिज्ञाबद्ध था । उसने अपनी प्रतिज्ञा की बात कहकर आने से इन्कार कर दिया। शिरःशूल से व्यथित राजा अपने आदेश का उल्लंघन सुनकर क्रोध से कांपने लगा और उसने आदेश दिया कि जैन चरित्र कोश •••
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