________________
उपस्थित लोगों का ध्यान बरबस इस इन्द्रध्वज की ओर आकर्षित हो रहा था। समारोह पूर्ण हुआ। सज्जा सामग्री को यथास्थान रख दिया गया। इन्द्रध्वज वाले दण्ड को यों ही फैंक दिया गया। कछ दिन बाद उस पर मिट्टी जम गई। कोई उसे देखता तक न था। उधर से एक दिन द्विमुख गुजरे तो उन्होंने उस बांस को देखा और उसके बारे में पूछा। उन्हें बताया गया कि यह वही इन्द्रध्वज है। सुनकर राजा का आत्मचिन्तन जाग्रत हो गया-सौन्दर्य बाहर से आरोपित है। जब यह हट जाता है तो व्यक्ति की दशा भी इस दण्ड जैसी ही हो जाती है। आत्मसौन्दर्य ही वास्तविक और ध्रुव सौन्दर्य है। मुझे वही सौन्दर्य अपने भीतर अनावृत्त करना चाहिए।
इस दृश्य से प्रतिबोध पाकर द्विमुख राज-पाट त्यागकर दीक्षित हो गए। उत्कृष्ट तप और विशुद्ध संयम पालकर केवलज्ञान प्राप्त कर वे मोक्ष गए।
-उत्तराध्ययन वृत्ति 9/2 द्वैपायन ऋषि __ वासुदेव श्रीकृष्ण के युग के एक ऋषि। भगवान अरिष्टनेमि ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि द्वैपायन के क्रोध की आग से द्वारिका का दहन होगा। किसी समय शाम्ब आदि कुमारों ने मदिरा के नशे में मत्त बनकर द्वैपायन ऋषि पर आक्रमण कर दिया। राजकुमारों ने ऋषि को बुरी तरह से अपमानित और तिरस्कृत किया। उस पर पत्थर बरसाए। घायल द्वैपायन ने क्रोध में जलते हुए निदान किया कि वह उस द्वारिका का विनाशकर्ता बने जहां वैसे उद्दण्ड राजकुमार रहते हैं।
मरकर द्वैपायन अग्निकुमार देव बना और उसने द्वारिका का दहन कर अपने क्रोध को पूरा किया।
... 262 ..
- जैन चरित्र कोश ....