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का सहारा लेते हुए पद्मनाभ से छह मास का समय मांग लिया। उधर पांचों पाण्डवों ने द्रौपदी को खोजा। असफल रहने पर श्रीकृष्ण की सहायता मांगी। श्रीकृष्ण ने नारदजी से जान लिया कि द्रौपदी धातकीखण्ड में है। पांचों पाण्डवों को साथ लेकर श्रीकृष्ण दुर्लंघ्य सागर को लांघकर धातकीखण्ड गए और वहां पद्मनाभ को परास्त कर द्रौपदी को अपने देश ले आए।
सुदीर्घ काल तक द्रौपदी राजरानी के पद पर रहकर राजसुख भोगती रही। बाद में उसने अपने पांचों पतियों के साथ संयम का पथ स्वीकार कर लिया। राजगद्दी पर द्रौपदी का पुत्र पाण्डुसेन बैठा। निरतिचार संयम साधना को साधकर द्रौपदी पांचवें देवलोक में गई। वहां से महाविदेह में एक भव कर मोक्ष जाएगी।
-ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अध्ययन 16 द्विपृष्ठ वासुदेव
वर्तमान अवसर्पिणी काल का द्वितीय वासुदेव। द्वारिका नगरी के महाराज ब्रह्म की रानी उमा की कुक्षी से उसका जन्म हुआ था। महाराज ब्रह्म की एक अन्य रानी थी सुभद्रा। उसने भी एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम विजय रखा गया। विजय द्वितीय बलदेव बना। उस समय में तारक प्रतिवासुदेव एक बलशाली राजा था। उसी का मान-मर्दन कर और युद्ध में उसे परास्त कर द्विपृष्ठ वासुदेव के पद पर अभिषिक्त हुआ। द्विपृष्ठ एक कठोर हृदय वाला शासक सिद्ध हुआ। तीन खण्डों को उसने एक सूत्र में तो पिरोया, पर प्रजा उसके शासन से सन्तुष्ट और सुखी नहीं हो पाई। परिणामतः उसने नरक का आयुष्य अर्जित किया। चौहत्तर लाख वर्ष की आयु भोगकर वह मरा और नरक में गया।
_ विजय का द्विपृष्ठ पर अनन्य अनुराग था। भाई की मृत्यु से उसे गहन शोक हुआ। पर कुछ समय बाद वह सामान्य हो गया। भाई के विरह ने उसके हृदय में विराग के बीज बो दिए और वह दीक्षित हो गया। उत्कृष्ट संयम की साधना करते हुए वह दीक्षित हो गया। उत्कृष्ट संयम की साधना करते हुए सकल कर्म खपा कर वह सिद्ध पद का अधिकारी बना।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र द्विमुख
- ये प्रत्येकबुद्ध थे। प्रत्येकबुद्ध उसे कहते हैं जो किसी घटना अथवा दृश्य को देखकर अथवा अनुभव कर प्रतिबुद्ध बन जाता है। द्विमुख पांचाल देश के कपिलपुर के राजा थे। उनका पूर्वनाम जय था। गुणमाला उनकी पति-परायण रानी थी। उनके सुशासन में सब ओर समृद्धि व्याप्त थी। किसी समय उनके दरबार में दूर-देशों का भ्रमण करने वाला एक चारण आया। चारण ने महाराज और उनके व्यवस्थित शासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। राजा ने चारण से कहा कि वह प्रशंसा छोड़कर यह बताए कि उनके राज्य में अथवा दरबार में किसी बात की कोई कमी तो नहीं है। चारण ने पैनी दृष्टि से दरबार का आकलन किया। फिर बोला, सब अद्भुत है पर एक कमी है, आपके दरबार में चित्रशाला नहीं है।
महाराज जय ने दूर देशों के कुशल कारीगरों को आमंत्रित कर चित्रशाला के निर्माण का आदेश दिया। इसके लिए जब नींव खोदी जा रही थी तो उसमें से एक मुकुट निकला। राजा ने जब इसे धारण किया तो इसमें जड़ित मणियों के प्रतिबिम्ब से उनके दो मुख दिखाई देने लगे। यहीं से राजा जय को द्विमुख उपनाम से जाना जाने लगा।
अद्भुत चित्रशाला बनकर तैयार हो गई। शुभ मुहूर्त में इसका उद्घाटन समारोह हुआ। चित्रशाला के मध्य एक इन्द्रध्वज आरोपित किया गया। उसे विविध वर्णी ध्वजाओं से सजाया गया। राजा सहित सभी ... जैन चरित्र कोश ..
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