________________
उन्हें वनवास स्वीकार करना पड़ा। नल ने दमयंती को उसके पिता के घर भेजना चाहा। पर पतिपरायण दमयंती ने पति की बात को अस्वीकार करते हुए कष्ट के क्षण में उनकी देहच्छाया बने रहने का संकल्प कर लिया। निर्जन वन में एक वृक्ष की छाया में नल-दमयंती विश्राम करने लगे। निद्राधीन दमयंती के आंचल पर उसके मायके का मार्ग लिखकर नल एक दिशा में विदा हो गए। दमयंती निद्रा से जागी तो हत्प्रभ हो गई। अपने हृदय में प्रलय-सा अनुभव करते हुए उसने पति का निर्देश पढ़ा। पर वह अपने घर न गई। एक पर्वत गुफा में रहकर धर्मध्यान करने लगी। वहां रहते हुए उसने पांच सौ तापसों को जिनेश्वर देव का सम्यक् पथ दिखाया। फिर किसी समय एक सार्थ के साथ वह अचलपुर पहुंची। वहां के राजा का नाम ऋतुपर्ण था, जो दमयंती का मौसा था। ऋतुपर्ण की रानी चंद्रयशा उसकी मौसी थी। पर दमयंती ने वहां अपना परिचय नहीं दिया। वह स्वयं को दमयंती की दासी बताकर वहां दासी का काम प्राप्त करने में सफल हो गई। कुछ समय पश्चात् कुँडिनपुर से आए एक ब्राह्मण द्वारा पहचान लिए जाने पर भेद उजागर हो गया। महाराज भीम पुत्री को कुंडिनपुर ले गए। ___ वन में भटकते हुए नल को एक नाग ने काट लिया, जिससे वे विद्रूप और कुब्ज हो गए। सुसुमारपुर नरेश दधिपर्ण के यहां स्वयं को नल का रसोइया बताकर महाराज नल ने अपना कष्ट का समय बिताया। नल को खोजने के लिए महाराज भीम ने दमयंती का स्वयंवर पुनः रचा। नल उस स्वयंवर में पहुंचे और पति-पत्नी का पुनर्मिलन हो गया। नल ने अपना राज्य फिर से प्राप्त कर लिया। कालान्तर में दमयंती ने दीक्षा धारण की और आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में गई।
-भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति गाथा 8 / त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 8, सर्ग 3 दमसार मुनि
दमसार कृतांगला नगरी का राजकुमार था। उसके पिता महाराज सिंहरथ नगर नरेश थे। माता का नाम सुनंदा था।
दमसार की युवावस्था में जब उसके माता-पिता उसके विवाह की तैयारी कर रहे थे तो उसी अवधि में तीर्थंकर महावीर कृतांगला नगरी में पधारे। दमसार भगवान की वाणी सुनकर प्रतिबोधित हो गया। उसने माता-पिता से दीक्षा की अनुमति मांगी। माता-पिता ने पुत्र को संसार में बांधे रखने के लिए सभी तरह से समझाया, मनाया, प्रलोभन दिए, पर सब व्यर्थ रहा। अन्ततः उन्हें आज्ञा दे दी। _____ दमसार-राजकुमार से मुनि बन गया। अध्ययन के पश्चात् उसने अपने लिए तप का मार्ग चुना। कठोर तप करने लगा। उसने प्रभु की आज्ञा प्राप्तकर निरन्तर मासखमण करने की प्रतिज्ञा धारण कर ली। दुर्धर्ष तप से उसका शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। पर उसे कैवल्य की प्राप्ति नहीं हुई। इससे उसका मन संशय ग्रस्त हो गया कि मैं अभव्य तो नहीं हूं! वह प्रभु के चरणों में उपस्थित हुआ और उसने अपना संशय प्रभु के समक्ष प्रकट किया। प्रभु ने फरमाया-दमसार! तुम भव्य हो और इसी भव में मोक्षगामी हो, पर उसके लिए तुम्हें अपने नामानुरूप कषायों के शमन हेतु विशेष श्रम करना चाहिए!
दमसार दोगुने उत्साह से साधना में तल्लीन हो गया।
एक बार मासोपवास के पारणक पर मुनि दमसार ततीय प्रहर में चम्पानगरी में पधारे। सूर्य आग बरसा रहा था। धरती जल रही थी। कदम-कदम चल पाना तपस्वी मुनि के लिए कठिन सिद्ध हो रहा था। रास्ते में एक व्यक्ति से मुनि ने नगरी में प्रवेश के लिए सुगम मार्ग पूछा। संयोग से वह व्यक्ति श्रमण-द्वेषी ..240 ..
- जैन चरित्र कोश ..