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ने सुदीर्घ काल तक श्रावक धर्म की सम्यक् आराधना की। कालान्तर में उन्होंने गृह-दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंप दिए। एक मास के संथारे के साथ देह विसर्जित कर प्रथम देवलोक के अरुणाभ विमान में महान समृद्धिशाली देवता बने। वहां से च्यव कर वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे और संयम की निरतिचार आराधना कर मोक्ष जाएंगे।
-उपासकदशांग सूत्र कामध्वजा
एक गणिका। (देखिए-उज्झित कुमार) कामपताका
कौशाम्बी नगरी की एक गणिका। (देखिए-सहस्रमल्ल) कार्तिक सेठ
बीसवें तीर्थंकर अरिहंत मुनिसुव्रत स्वामी के समय का एक धर्मनिष्ठ श्रावक। देव, गुरु और धर्म के प्रति उसकी अनन्य आस्था थी। अपने युग का वह एक बहुत बड़ा व्यापारी था। उसका व्यापार इतना फैला हुआ था कि उसके प्रबंधन के लिए एक हजार मुनीम नियुक्त किए गए थे।
उस नगर का राजा अन्यमतावलम्बी था। एक बार जब राजा का गुरु नगर में आया तो सभी नगरवासी उसके दर्शनों के लिए गए. पर कार्तिक सेठ नहीं गया। इस पर किसी विद्वेषी ने राजा के गरु के कान भर दिए कि कार्तिक सेठ आपको गरु नहीं मानता है। वह श्रमणों के अतिरिक्त किसी के समक्ष नहीं झकता है
और न किसी को गुरु मानता है। राजा के गुरु को राजगुरु होने का गर्व था। उसने कार्तिक सेठ को अपना बल दिखाने का निश्चय कर लिया। उधर राजा ने अपने गुरु को आमंत्रित किया तो गुरु ने कहा कि वह राजमहल में तब ही भोजन कर सकता है, जब उसकी थाली कार्तिक सेठ की पीठ पर रखी जाए, अन्यथा वह तपरत ही रहेगा। ... गुरु की प्रसन्नता के लिए राजा ने कार्तिक सेठ को अपने पास बुलाया और पूरी बात कही। कार्तिक राजाज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता था। आखिर राजगुरु को बुलाया गया और कार्तिक सेठ को उसके समक्ष इस ढंग से बैठाया गया कि उसकी पीठ पर थाली रखी जा सके। गर्म खीर से भरी हुई थाली राजगुरु ने कार्तिक सेठ की पीठ पर रखी और दान्ध बनकर पर्याप्त समय लगाकर भोजन किया। कार्य निपट गया। पर कार्तिक सेठ को बड़ी आत्मग्लानि हुई। उसने सोचा कि धिक्कार है उस संसार में रहना, जहां रहकर राजा के उचित-अनुचित सभी आदेश मानने पड़ें। इस चिन्तन के साथ वह गृह त्यागकर अनगार बन गया। विशद्ध संयम की परिपालना कर प्रथम स्वर्ग का इन्द्र (शकेन्द्र) बना। उधर वह राजगरु अब प्रभाव से देवलोक में तो गया पर उसे वहां जो दायित्व मिला, वह था ऐरावत हाथी का। वह इन्द्र का हाथी बना। हाथी बने राजगुरु ने अवधिज्ञान में अपने पूर्वभव को जाना तो उसका अहंकार फुफकार उठा। साथ ही वह आत्महीनता से भी भर गया कि उसे उसी व्यक्ति को आजीवन पीठ पर बैठाना होगा, जिसकी पीठ को उसने गर्म खीर से जलाया था। इन्द्र को कहीं जाना था, सो ऐरावत पर आरूढ़ हुआ। ऐरावत ने विकुर्वणा से अपने दो रूप बना लिए। इन्द्र ने एक पर अपना वज्र रख दिया तथा दूसरे पर स्वयं बैठ गया। ऐरावत ने तीसरा रूप बना लिया। इन्द्र ने उस पर अपनी तीसरी वस्तु रख दी। ऐरावत प्रत्येक बार अपने रूप बढ़ाता रहा। आखिर इन्द्र को ऐरावत की मानसिकता का पता चल गया। उसने उस पर वज्र का प्रहार किया। पीड़ा से तिलमिलाते हुए ऐरावत ने अपनी विकुर्वणा को समेट लिया और मान मारकर इन्द्र का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। ...96
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