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तब से इन्द्र महाराज तीर्थंकर भगवंतों के कल्याणोत्सवों पर उसी ऐरावत पर सवार होकर आते हैं।
-भगवती सूत्र 18/2 काल
वर्तमान अवसर्पिणी काल के पञ्चम नारद । (देखिए-नारद) कालकाचार्य
वी. नि. की पांचवीं शताब्दी में हुए एक महान जैन आचार्य। वे धारानगरी के राजकुल में पैदा हुए थे। उनके पिता का नाम वैरसिंह और माता का नाम सुरसुन्दरी था। उनकी एक बहन थी, जिसका नाम सरस्वती
था।
___ एक बार राजकुमार कालक अश्वारूढ़ होकर वन विहार को जा रहे थे। वहां उन्हें एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि का नाम गुणाकार था। कालक ने मुनि को वन्दन किया और मुनि ने कालक को धर्म का मर्म समझाया। कालक विरक्त हो गया और उसने दीक्षा धारण करने का संकल्प किया। अनन्य अनुराग के कारण बहन सरस्वती ने भी कालक के साथ ही जिन दीक्षा धारण की। कालक ने गुरु चरणों में रहकर अल्प समय में ही श्रुत-सागर का पारायण कर लिया। थोड़े समय में ही कालक एक प्रभावशाली मुनि बन गए। गुरु ने उन्हें आचार्य पद प्रदान किया। कालकाचार्य के अनेक शिष्य बन गए। जनपदों में धर्मोद्योत करते हुए विशाल संघ के साथ कालकाचार्य विचरने लगे।
एकदा कालकाचार्य का पदार्पण उज्जयिनी नगरी में हुआ। उस समय गर्दभिल्ल नामक राजा उज्जयिनी का अधिपति था। किसी समय गर्दभिल्ल राजा की दृष्टि साध्वी सरस्वती पर पड़ी। वह साध्वी के रूप पर मुग्ध हो गया और उसने अपने सुभटों से उसका अपहरण करा लिया। कालकाचार्य के लिए यह दोहरा आघात था। वे राजदरबार में पहुंचे और उन्होंने राजा को विभिन्न युक्तियों से समझाया। नगरजनों ने भी राजा से निवेदन किया कि वह साध्वी को मुक्त कर दे। परन्तु हठी राजा पर किसी की बात का कोई प्रभाव नहीं हुआ।
कालकाचार्य खिन्न हो गए। राजा को उचित दण्ड देने का संकल्प लेकर वे लौट आए। संघीय दायित्व योग्य शिष्य को देकर कालकाचार्य एकाकी विहार कर गए। वे किसी ऐसे शासक की खोज में थे, जो गर्दभिल्ल का दर्प दलन कर सके। उसके लिए उन्होंने सुदूर प्रान्तों और देशों की यात्रा की।
दूर-दूर तक उन्हें कोई ऐसा राजा नहीं मिला जो गर्दभिल्ल पर भारी पड़ सके। कालकाचार्य पश्चिम दिशा में सिंधु तट पर पहुंचे। वहां शारवी देश के शक शाह को उन्होंने अपने प्रभाव में लिया और गर्दभिल्ल को दण्डित करने के लिए उसे तैयार किया। भरोंच नगर नरेश बलमित्र और भानुमित्र संसार पक्ष में कालकाचार्य के निकट सम्बन्धी थे। शारवी के शक शाह तथा बलमित्र और भानुमित्र के संयुक्त सैन्यदल के साथ गर्दभिल्ल पर आक्रमण किया गया। गर्दभिल्ल पराजित हुआ। साध्वी सरस्वती को मुक्त कराया गया। कालकाचार्य के कहने पर गर्दभिल्ल को सत्ताच्युत कर छोड़ दिया गया।
समुचित्त प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि करने के पश्चात् कालकाचार्य अपने गण में लौट आए। कालकाचार्य का विमल सुयश सुदूर देशों तक व्याप्त हुआ। श्रुत और आचार के प्रति कालकाचार्य की गहरी निष्ठा थी। जब वे अंतिम वय में थे तो श्रुत और स्वाध्याय के प्रति अपने शिष्य वर्ग में उदासीनता देखकर वे खिन्न हो गए। पुनः पुनः प्रेरणा देने पर भी शिष्य वर्ग ने प्रमाद नहीं छोड़ा तो कालकाचार्य शिष्य वर्ग को छोड़कर ... जैन चरित्र कोश ...
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