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चन्द्र पर उसकी दृष्टि अटक गई। वह एकाएक उठ बैठा और उसने निश्चय किया कि वह अपने नियम को खण्डित नहीं होने देगा। वह उठा और धन की गठड़ी वहीं छोड़कर अपनी झोंपड़ी में आ गया। उसे संतोष था कि उसने धन गंवाकर भी अपने धर्म की रक्षा कर ली है ।
गणिका गणिका थी, पर उसमें भी धर्मबुद्धि शेष थी । वह कान्हड़ द्वारा छोड़े गए धन को लेकर राजा के पास पहुंची। धन राजा को देते हुए कामलता ने पूरी बात कह सुनाई और स्पष्ट कर दिया कि उस धन पर उसका अधिकार नहीं है । गणिका की प्रामाणिकता से राजा बहुत प्रभावित हुआ और उसने धन के वास्तविक स्वामी को पहचान कर उसका धन उसे ही लौटाने का निश्चय किया। राजा ने तत्सम्बन्धी घोषणा कराई। घोषणा सुनकर कान्हड़ राजदरबार में पहुंच गया। वेश्या ने पुष्टि कर दी कि यही व्यक्ति धन का स्वामी है। राजा ने कान्हड़ का परिचय पूछा और पूछा कि वह धन को छोड़कर क्यों भाग गया था । कान्हड़ व्रत ग्रहण से शुरू कर पूरी कहानी राजा को सुना दी । कान्हड़ की नियम-निष्ठा देखकर राजा - प्रजा ने उसे
धन्य-धन्य कहा ।
राजा ने धन की गठड़ी कान्हड़ को देनी चाही तो उसने उसे ग्रहण करने से इन्कार कर दिया और कहा, एक लघु से नियम के कारण आज उसे अचाहे ही इतना धन और प्रतिष्ठा मिल रही है, अब उसने महाव्रत धारण करने का संकल्प कर लिया है, अब वह आचार्य धर्मघोष का शिष्य बनकर आत्मधन प्राप्त करना चाहता है।
आखिर वैराग्य की प्रबल धारा बही। कान्हड़ के साथ ही श्रीपति सेठ, कामलता गणिका और राजा ने भी संयम धारण कर आत्मकल्याण किया ।
कामदेव (श्रावक )
चम्पानगरी का रहने वाला एक समृद्ध गाथापति और भगवान महावीर का अनन्य उपासक । उसने अपनी पत्नी भद्रा के साथ भगवान से श्रावक धर्म स्वीकार किया और पूर्ण निष्ठा से उसकी परिपालना की। उसकी समृद्धि इस तथ्य से स्वतः सिद्ध है कि उसक पास अठारह कोटि स्वर्णमुद्राएं तथा साठ हजार गाएं
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कामदेव की धर्मनिष्ठा देवलोक में भी चर्चित होने लगी थी । किसी समय देवराज इन्द्र द्वारा उसकी धर्मदृढ़ता की प्रशंसा किए जाने पर एक देव उसकी परीक्षा लेने आया । आनन्द पौषधशाला में पौषध की आराधना में लीन थे । देव ने रौद्र रूप धर कर कामदेव को डराने का प्रयास करते हुए उसे जिनधर्म छोड़ने के लिए कहा। उनके अविचलित रहने पर देव ने सिंह, हाथी, व्याघ्र, सर्प आदि के रूप बनाकर उन्हें अनेक कष्ट दिए । तलवार से उन पर वार किया । पर कामदेव विचलित न हुए। देवता को विश्वास हो गया कि कामदेव एक दृढ़धर्मी श्रावक है। वह उनके चरणों में गिर पड़ा और अपने द्वारा ली गई कठोर परीक्षा के लिए क्षमायाचना कर अपने लोक को चला गया।
तब भगवान महावीर चम्पानगरी में ही विराजित थे । प्रभात होने पर कामदेव उपवास में ही भगवान के दर्शन के लिए गए। भगवान ने कामदेव की देव - परीक्षा की चर्चा परिषद् में की और अपने श्रमणों को उद्बोधित किया- श्रमणो! कामदेव ने गृहस्थ में रहते हुए देवकृत उपसर्गों को निरस्त कर दिया । तुम तो श्रमण हो ! तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिए । मरणान्तिक उपसर्गों और परीषहों में भी धर्मच्युत नहीं होना चाहिए।
महावीर के श्रीमुख से कामदेव की प्रशंसा सुनकर परिषद् भी उनकी प्रशंसा करने लगी । यों कामदेव जैन चरित्र कोश
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