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सकती है। जीवनी एक ही व्यक्ति की होती है और पाठक से भरपूर समय मांगती है। वास्तविकता यह है कि साहित्य की कोई भी विधा संक्षेप में वैविध्यपूर्ण मनुष्य जीवन की वास्तविकता का पूरी तरह अंकन करने को अपना उद्देश्य नहीं मानती। ___चरित्र लेखन की जरूरत और महत्व का प्रारंभ यहीं से होता है। प्रस्तुत कोश को ।
इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि चरित्र-लेखन की कोई स्वतंत्र विधा भी साहित्य में में हो सकती है या नहीं। मैं समझता हूं-यह एक स्वतंत्र विधा है। जनमानस में प्रतिष्ठित
व्यक्तियों का सारगर्भित व्यक्तित्व सहजता और सरलता के साथ संक्षेप में उद्घाटित करने वाली विधा। यद्यपि इस रूप में उसकी चर्चा लगभग नहीं की गई है परंतु कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र द्वारा रचित तरेसठ महान् व्यक्तित्वों के चरित्र प्रस्तुत करने वाला 'त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र' वस्तुतः इसी विधा का सूत्रपात करने वाला एक सक्षम ग्रंथ है। इस विधा की परंपरा को जितनी ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहिए था, उतनी ऊर्जा के साथ आगे वह बढ़ नहीं सकी। प्रस्तुत कोश के माध्यम से मैंने प्रयास किया है कि । एक कदम ही सही, वह परंपरा आगे बढ़े। जहां तक मैं जानता हूं, इससे पूर्व कोई और जैन चरित्र कोश सामने नहीं आया है। इस दृष्टि से इसे पहला कोश भी कहा जा सकता।
___अधिकांशतः कथाओं या प्रसंगों के रूप में ही चरित्रों को प्रस्तुत किया जाता रहा है। कोश भी कथाओं के ही अधिक सामने आए। दसवीं-ग्यारहवीं सदी के आचार्य हरिषेण । का बृहत्कथा कोश', बारहवीं सदी के प्रभाचंद्र का 'कथा कोश', बारहवीं सदी के ही । जिनेश्वर सूरि के 'कथाकोश प्रकरण' एवं 'कथानक कोश' ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। कथाओं के क्षेत्र में काफी काम हुआ है। श्री धर्मदास गणि, जयसिंह सूरी, आचार्य हरिभद्र प्रभृति विद्वान मुनीश्वरों ने कथा-साहित्य की भरपूर रचना की है। ____ आधुनिक युग के भी कई मनीषी मुनियों द्वारा सरल हिंदी में कथा-शृंखलाएं रचित
और प्रकाशित हुई हैं। राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज की जैन कथाएं', युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी महाराज की 'जैन कथामाला', प्रवर्तक श्री रमेश । मुनि जी म. की 'प्रताप कथा कौमुदी', श्वेताम्बर तेरापंथ के विद्वान मुनिराज श्री महेंद्र । मुनि जी महाराज 'प्रथम' की 'जैन कहानियां' ऐसी ही श्रृंखलाएं हैं। इनके अतिरिक्त । भी अन्य अनेक साधु-साध्वियों ने कथाओं की अनेक प्रस्तुतियां की हैं।
चरित्रों का स्थान सभी कथाओं में अक्षुण्ण रहता ही है और इन सभी कथा-रचनाओं । में भी रहा है। चरित्रों के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से भी इन का योगदान इतिहास में अविस्मरणीय ।
स्विकथ्य । -
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जैन चरित्र कोश