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{560} अव्याहृतं व्याहृताच्छ्रेय आहुः सत्यं वदेद् व्याहृतं तद् द्वितीयम्। प्रियं वदेद व्याहृतं तत् तृतीयं धर्मं वदेद् व्याहृतं तच्चतुर्थम्॥
(म.भा. 5/36/12,12/299/38, विदुरनीति 4/12) बोलने से न बोलना ही अच्छा बताया गया है, (यह वाणी की प्रथम विशेषता है और यदि बोलना ही पड़े तो) सत्य बोला जाय- यह वाणी की दूसरी विशेषता है यानी मौन की अपेक्षा भी अधिक लाभप्रद है। (सत्य और) प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। यदि सत्य और प्रिय के साथ ही धर्म-सम्मत भी कहा जाय, तो वह वचन की (सर्वोत्तम) चौथी विशेषता है। इन चारों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है।
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काले हितं मितं ब्रूयादविसंवादि पेशलम्॥
(शु.नी. 3/12) उचित अवसर पर, थोड़े शब्दों में, और सुसंगत व मधुर वचन बोलना चाहिये।
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___{562} तस्मात्सत्यं वदेत्प्राज्ञो यत्परप्रीतिकारणम्। सत्यं यत्परदुःखाय तदा मौनपरो भवेत्॥
(वि.पु. 3/12/43) अतः प्राज्ञ पुरुष को वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरों की प्रसन्नता का कारण हो। यदि किसी सत्य वाक्य के कहने से दूसरों को दुःख होता जाने, तो मौन रहे।
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___{563} सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः॥
(म.स्मृ. 4/138; अ.पु. 372/8; ग.पु. 1/ 229/15; वि. ध. पु. 3/233/177) सत्य (जैसा देखा है वैसा) बोले, प्रिय ('तुम्हें पुत्र हुआ है, तुम परीक्षा में उत्तीर्ण म हो गये इत्यादि प्रीतिजनक वचन') बोले, सत्य भी यदि अप्रिय हो तो उसे न बोले; यही है ॐ सनातन (अनादि काल से चला आता हुआ) धर्म है।
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%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%% |वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/158