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सदाऽनार्योऽशुभः साधुं पुरुषं क्षेप्तुमिच्छति॥
(म.भा. 7/198/26) दुष्ट और अनार्य पुरुष सदैव सज्जन पुरुष पर आक्षेप (दोषारोपण) करने की इच्छा रखता है।
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{410} आत्मोत्कर्ष न मार्गेत परेषां परिनिन्दया। स्वगुणैरेव मार्गेत विप्रकर्षं पृथग्जनात्॥ निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसम्भाविता नराः। दोषैरन्यान् गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात्॥ अनूच्यमानास्तु पुनः ते मन्यन्तु महाजनात्। गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः॥ अब्रुवन् कस्यचिनिन्दामात्मपूजामवर्णयन्। विपश्चिद् गुणसम्पन्नः प्राजोत्येव महद् यशः॥
___(म.भा.12/287/25-28) दूसरों की निन्दा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न न करे। साधारण मनुष्यों * की अपेक्षा जो अपनी उत्कृष्टता है, उसे अपने गुणों द्वारा ही सिद्ध करे (बातों से नहीं)। यदि
उनको उत्तर दिया जाय तो फिर वे घमंड में भरकर अपने-आपको महापुरुषों से भी अधिक ॐ गुणवान् मानने लगते हैं। गुणहीन मनुष्य ही अधिकतर अपनी प्रशंसा किया करते हैं। वे
अपने में गुणों की कमी देखकर दूसरे गुणवान-पुरुषों के गुणों में दोष बताकर उन पर आक्षेप किया करते हैं। परंतु जो दूसरे किसी की निन्दा तथा अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा उत्तम गुणसम्पन्न विद्वान् पुरुष ही महान् यश का भागी होता है।
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411)
रहस्य-भेदं पैशुन्यं, पर-दोषानुकीर्तनम्। पारुष्यं कलहं चैव, दूरतः परिवर्जयेत्॥
(चाणक्य-नीतिशास्त्र, तृतीय शतक- 188) किसी के रहस्य को प्रकट करना, निरर्थक बुराई करना, दूसरे के दोषों का कीर्तन, कठोर व्यवहार और झगड़ा-इन का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। の野汁野野野野野野野野野野野野野野野西野亮牙牙牙牙牙牙野巧真野野野野野野野
अहिंसा कोश/115]