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{366} सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम्। उभे त्वेते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते॥
(म.भा. 5/35/2) सब तीर्थों में स्नान और सब प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव-ये दोनों एक समान हैं, अथवा कोमलता के बर्ताव का विशेष महत्त्व है।
{367} कूटेन व्यवहारं तु वृत्तिलोपं न कस्यचित्॥ न कुर्याच्चिन्तयेत्कस्य मनसाऽप्यहितं क्वचित्।
(शु.नी. 3/157-158)) किसी के साथ कपटपूर्ण व्यवहार या आजीविका की हानि नहीं करनी चाहिये, । और कभी किसी का अहित भी मन से नहीं सोचना चाहिये, इन्हें वस्तुतः करना तो दूर रहा।
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{368} ये परेषां श्रियं दृष्ट्वा न वितप्यन्ति मत्सरात्। प्रहृष्टाश्चाभिनंदन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः॥
(प.पु. 2/96/35) जो लोग दूसरों की समृद्धि देखकर मात्सर्य-ग्रस्त और संताप-ग्रस्त नहीं होते, अपितु हर्षित व आनन्दित होते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं।
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{369}
येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि ते वै पापकृतो जनाः॥
(म.भा.13/120/25)
जो प्राणियों से द्रोह करते हैं, वे ही पापाचारी समझे जाते हैं।
अहिंसा: वाणी-व्यवहार में भी
{370 न वदेत् सर्वजन्तूनां हृदि रोषकरं बुधः।
(शि.पु. 1/13/80) __ऐसी कोई बात किसी भी प्राणी के विषय में न कहे जिससे उसके हृदय में कोई रोष पैदा हो।'
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[वैदिक/ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/106