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{371}
यां वै दृप्तो वदति, यामुन्मत्तः सा वै राक्षसी वाक् ।
(ऐ.ब्रा.2/1/7)
जो ऐश्वर्य एवं विद्या के घमंड में दूसरों का तिरस्कार करने वाली वाणी बोलता है, जो पूर्वापर-सम्बन्ध से रहित विवेकशून्य वाणी बोलता है, वह राक्षसी वाणी है।
{372} जिह्वा मे भद्रं वाङ् महो, मनो मन्युः स्वराड् भामः ।
(य. 20/6)
मेरी जिह्वा कल्याणमयी हो, मेरी वाणी महिमामयी हो, मेरा मन प्रदीप्त साहसी हो, और मेरा साहस स्वराट् हो, स्वयं शोभायमान हो, उसे कोई खण्डित न कर सके ।
{373}
वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।
वाणी के अधिपति विद्वान् हमारी वाणी को मधुर एवं रोचक बनाएं।
{374}
भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि ।
(य. 11/7)
(य.21/61)
मनुष्य कल्याणकारी सुभाषित वचनों के लिए ही प्रेषित एवं प्रेरित हैं, अत: तुम कथनयोग्य सूक्तों (सुभाषित वचनों) का ही कथन करो ।
{375}
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम् । वाचा वदामि मधुमद्, भूयासं मधु संदृशः ॥
(37.1/34/3)
मेरा निकट और दूर- दोनों ही तरह का गमन मधुमय हो, अपने को और दूसरों को प्रसन्नता देने वाला हो। अपनी वाणी से जो कुछ बोलूँ, वह मधुरता से भरा हो। इस प्रकार सभी प्रवृत्तियाँ मधुमय होने के फलस्वरूप मैं सभी देखने वाले लोगों का मधु (मीठाप्रिय ) होऊं ।
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अहिंसा कोश / 107]