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________________ 廣廣編碼編碼編碼 {355} न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति । (अ. पु. 381/12, गीता - 6/40) (सबका) कल्याण करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है । (356) संतस्त एव ये लोके परदुःखविदारणाः । आर्तानामार्तिनाशार्थं प्राणा येषां तृणोपमाः ॥ तैरियं धार्यते भूमिर्नरैः परहितोद्यतैः । ( प.पु. 5/101/36-37) वे ही लोग' सन्त' हैं जो संसार में दूसरों के दुःख को दूर करते हैं और दुःखी व्यक्ति के दुःख को दूर करने में जो अपने प्राणों को तृण की तरह तुच्छ समझते हैं। ऐसे परउपकारी सन्त लोगों के कारण ही यह पृथ्वी टिकी हुई है। अहिंसा की सार्थकता: छल, कपट, द्वेष व कुटिलता से रहित व्यवहार {357} अति निहो अति सृuisत्यचित्तीरति द्विषः । (37.2/6/5) कलह, हिंसा, पाप-बुद्धि और द्वेष-वृत्ति से अपने आपको सदा दूर रखिए । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 104 (358) यो नः कश्चिद् रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्यः । स्वैः ष एवै रिरिषीष्ट युर्जनः ॥ (.8/18/13) व्यक्ति किसी को राक्षस भाव (दुर्भाव) से नष्ट करना चाहता है, वह स्वयं अपने ही पापकर्मों से नष्ट हो जाता है, अपदस्थ हो जाता है। {359} मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम् । परस्पर एक दूसरे से झगड़ने वाले मृत्यु को प्राप्त होते हैं। (37.6/32/3) 建
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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