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________________ भूमिकंप ३५७ भृकुटी माळ (६)भूमिका (नाटय०)(७) पात्र; भूयस्त्व न० पुष्कळ होवापणुं(२)प्रधानता स्थान; विषय (८)हद; सीमा भूयिष्ठ वि० पुष्कळ ; अत्यंत (२)मुख्य; भूमिकंप पुं० धरतीकंप अगत्यनुं (३) घणुं मोटुं; घणुं वधारे(४) भूमिका स्त्री० भूमि; जमीन (२) मोटे भागे होय तेवू; मोटा प्रमाणमां प्रदेश; जगा (३)मकाननो माळ (४) होय तेवु (६)लगभग आखं [अत्यंत पायरी (समाधि इ०नी) (५)नाटकमां भूयिष्ठम् अ० घणे भागे; मोटे भागे (२) अभिनय माटेनो भाग के स्वांग (६) भूयोदर्शन न० वारंवार जोवू ते प्रस्तावना (ग्रंथनी) भूयोभूयस् अ० वारंवार भूमिकाभाग पुं० ऊमरो (घरनो) भूर् अ० त्रण व्याहतिओमांनी एक (२) भूमिगृह न० भोंयतळ नीचेनो ओरडो सात पाताळोमांथी छेक नीचेर्नु । भूमिचल पुं०, भूमिचलन न० धरतीकंप भूरि वि० घj; पुष्कळ (२) मोटुं भूमिधर पुं० पर्वत (२) राजा (३)अ० अत्यंत; अति (४) वारंवार भूमिपुरंदर पुं० राजा(२)दिलीप राजा भूरिकालम् अ० लांबा वखत सुधी भूमिभृत् पुं० पर्वत (२) राजा भूरिधामन् वि० घणा तेजवाळू भूमिरुह पुं० वृक्ष भूरिव्यय वि० उडाउ; अति खर्चाळ भूमिलाभ पुं० मृत्यु भूमिलेपन न० लींपण भूरिशस् अ० बहुशः; अनेक प्रकारे भूमिवर्धन पुं०, न० शब; मडईं भूकह (-ह) पुं० वृक्ष भूमिसत्र न० जमीन दानमां आपवी ते भूर्ज पुं० भोजपत्र- झाड (२) न० लखव भूमिसमीकृत वि० जमीनदोस्त करेलु माटे वपराती तेनी छाल भूमिसंनिवेश पुं० कोई पण देशनो भूर्जपत्र पुं० भोजपत्र- झाड सामान्य देखाव के घडतर भूर्लोक पुं० पृथ्वी; भूलोक भूमिसुत पुं० मंगळ ग्रह (२)नरकासुर भूष १५०, १० उ० शणगारवू भमिष्ठ वि० जमीन उपर रहेलु के ऊभेलु भूषण न० आभूषण (२)शणगार (मजय पुं० विराटनो पुत्र ; उत्तर भूषाय आ० (आभूषण तरीके उपयोगमां भूमी स्त्री० जुओ'भूमि' । आवq). [गारेलू; अलंकृत भूमीश्वर, भूमींद्र पुं० राजा (२)पर्वत भूषित ('भूष' नुं भू० कृ०) वि० शणभूम्यनंतर पुं० पासेना प्रदेशनो राजा भूष्णु वि० थतुं; बनतुं (२) उत्कर्ष भूय न० होवू के बनवू ते ;-नी स्थिति इच्छतुं; समृद्ध थवा इच्छतुं पामवी ते (उदा० 'ब्रह्मभूय') भूसुत पुं० मंगळ ग्रह (२) नरकासुर भूयशस् अ० घणुं करीने; मुख्यत्वे (२) भूसुता स्त्री० सीता अत्यंत (३)वळी; उपरांत भूसुर पुं० भूदेव; ब्राह्मण भूयस् वि० वधारे; पुष्कळ (२) वधु भू १, ३ उ० भरवू (२) व्याप; भरी मोटुं (३) घणुं मोटुं; संख्याबंध (४) काढq (३) वहन करवू; टेकवq (४) -थी पूर्ण; -वधु जेमां होय तेवू (५) भरणपोषण करवं (५)धारण करवं; अ० अत्यंत; खूब (६) वळी; उपरांत मालिक होवू (६)पहेर, (७)अनुभवq; (७) वारंवार वेठवं (८)-ने अर्प; -मां उपजावq भूयसा अ० अति; अत्यंत (२) मोटे (शोभा इ०) (९)स्मृतिमा राखq भागे, सामान्यपणे भृकुटि (-टी) स्त्री० भमर; भy.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016092
Book TitleVinit Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherGujarat Vidyapith Ahmedabad
Publication Year1992
Total Pages724
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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