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कीथ महाशय ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया । देखो निम्नलिखित ब्राह्मणपाठ
ऐन्द्रो वै देवतया क्षत्रियो भवति । ऐ०७।१३॥ आगेयो वै देवतया क्षत्रियो दीक्षितो भवति । ऐ० ७॥२४॥ प्राजापत्यो ह्येष देवतया यद् द्रोणकलशः । तां० ६।५।६।। पुनः ऐतरेय ७ । ११ ॥ में एक पाठ है । यां पर्यस्तमियादभ्युदियादिति सा तिथिः। इसी का दूसरा रूपान्तर कौषीतकि ३ । १ ॥ में ऐसे हैयां पर्यस्तमयमुत्सदिति सा स्थितिः ।
इस सम्बन्ध में ऋग्वेदीय ब्राह्मणों के अनुवाद में कीथ का टिप्पण २, पृ० २९७ पर देखने योग्य है । हम अपनी सम्मति अभी नहीं दे सकते । गोपथ और कौषीतकि में समान प्रकरण में क्रमशः एक पाठ है
अमृतं वै प्रणवः । उ० ३ । ११॥ अमृतं वै प्राणः । ११ । ४ ॥
यहां कौषीतकि का पाठ ठीक प्रतीत होता है । ऐसे ही इन दोनों ब्राह्मणों में एक और पाठ है
अप्सु वै मरुतः शिताः । कौ० ५। ४॥ अप्सु वै मरुतः श्रितः । गो० उ० १ । २२ ॥
र दोनों स्थलों में श्रिताः पाठ युक्त प्रतीत होता है । कीथ महाशय ने यहां कोई टिप्पणी नहीं दी । पुनरपि
अयस्मयेन चरुणा तृतीयामाहुति जुहोति । आयस्यो वै प्रजाः । श० १३ । ३ । ४ । ५॥
अयस्मयेन कमण्डलुना तृतीयाम् । आहुति जुहोति । आयास्यो वै प्रजाः। तै० ब्रा० ३।९।११। ४ ॥
यहां तै० प्रा० के पाठ में आयास्यः पाठ निश्चय ही चिरकाल से अशुद्ध हो गया है। मट्ट मास्कर और सायण दोनों ही अशुद्ध पाठ को मानकर अर्थ में एक क्लिष्ट कल्पना करते हैं । अर्थात् अयास्य ऋषि से उत्पन्न की गई प्रजायें हैं। यहां भयास्य ऋषि का कोई प्रकरण ही नहीं । शतपथ स्पष्ट करता है कि प्रजायें
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