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(आयस्यः ) अर्थात् आयसी = लोह सम्बन्धी हैं । प्रकरण भी दोनों स्थलों में पूर्व पठित अयस्मय पद से लोह विषयक ही है । शतपथ में
विश एतद्रूपं यदयः । १३ । २।२ । १९ ॥ से पहले यह कह ही दिया गया है कि विश्=प्रजा लोहरूप है । अब न जानें भास्कर, सायण आदिकों ने तुलनात्मक विधि से क्यों लाभ नहीं उठाया, और भ्रष्ट पाठ को ही स्वीकार कर लिया।
___ हमारे इस कोष से ऐसे और भी स्थल स्पष्ट होंगे । विज्ञ पाठक उन सब से लाभ उठावें ।
। ब्राह्मणों में प्रक्षेप। ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं, ऐसा हम पूर्व सिद्ध कर चुके हैं । जिस प्रकार ब्राह्मणों के अनेक पाठ भ्रष्ट होगये हैं, वैसे ही कुछ पाठ उड़ गये हों, अथवा नये मिल गये हों, इस में अणुमात्र भी सन्देह नहीं । परन्तु प्रक्षेपोंके जानने के लिये अभी भारी अनुसन्धान की आवश्यकता है । इसी लिये कई प्रकरणों को वेदानुकूल न मानते हुए भी उनका कोष में समावेश किया गया है।
कोष में अभी कई त्रुटियां रह गई हैं, जिन्हें हम स्वयं जानते हैं । परन्तु समयाभाव तथा धनाभाव से इस से अच्छा काम नहीं होसकता था। विद्वान् महाशय उन भूलों को ध्यान में न रख कर इस के उपयोगी अंशों से लाभ उठावें, और वैदिक अनुसन्धान में आगे बढ़ें ! इन शब्दों के साथ हम कोष के इस प्रथम भाग को विद्वानों की भेंट करते हैं।
कोष के द्वितीय भाग में वेद की तैत्तिरीय, काठक आदि शाखा, जैमिनीय और काण्वीय शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय आदि आरण्यक, आपस्तम्बादि श्रौतसूत्र, यास्क तथा कौत्सव्यक्त निरुक्त और उपनिषदादि वैदिक ग्रन्थों से इसी प्रकार का संग्रह होगा । पाठक उस की प्रतीक्षा करें ।
अलमतिविस्तरेण वेदानुसन्धानपरेषु ॥ माघ शुदि १० शनि, वि० सं० १९८२
भगवदत्त
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