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प्रजापति कः। प्रजापति, ताः प्रजा वरुणेनाग्राहयद्यत्काय आत्मन एवैना वरुणान्मुञ्चति । मै० सं० १ । १० । १० ॥
कन्त्वाय कायो यद्वा आभ्यस्तद्वरुणगृहीताभ्यः। कमभवत्तस्मात्कायः । प्रजापतिर्वै ताः प्रजा वरुणेनाग्राहयत्प्रजापतिः कः। आत्मनैवैना वरुणान्मुश्चति । काठक सं० ३६ । ५ ॥
पूर्वोद्धृत वाक्यों में प्रजापति का नाम क इस लिये कहा गया है कि यह सुखस्वरूप है । क का अर्थ सुख है, ऐसा मानने में किसी पाश्रात्य को भी सन्देह नहीं होना चाहिये । ऋग्वेद में जो--
नाकः । १० । १२१ । ५॥ पद आता है, उस के स्वरूप पर विचार करने से निश्चय होता है कि क का अर्थ सुख है।
__ अब कई एक एसा कहते हैं कि यदि कस्मै का अर्थ सुखस्वरूपाय प्रजापतये किया जाय तो व्याकरण बाधा डालता है । सर्वनानः स्मै ॥ अष्टा० ७।१।२७॥ स्मै प्रत्यय सर्वनामों के साथ ही लगता है, अतः कस्मै पद सर्वनाम है, नाम नहीं ।*
ये महाशय नहीं जानते कि वेद में लौकिक व्याकरण के नियम काम नहीं देते । देखो विश्व पद सर्वनाम है। परन्तु ऋग्वेद में
विश्वाय । १ । ५० । १॥ विश्वात् । १ । १८९ । ६ ॥ विश्वे । ४ । ५६ । ४॥
इसी शब्द के ये तीन रूप नाम-प्रत्ययान्त आये है। इतना ही नहीं, ऋग्वेद में नाम भी सर्वनाम प्रत्ययान्त आये हैं । जैसे ऋ० ११०८॥१०॥
* मैक्समूलर इस विषय में एक लम्बा लेख लिखता है देखोVerlic Hymns Part I. 1891. P. 11-13.
मैकडानल A Vedic Grammar for students, 120b. में यही स्वीकार करता है । यदि उसे हमारे इस सारे कथन का ध्यान आ गया होता तो वह अवश्य कोई और कल्पना उपस्थित करता ।
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