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अहोरात्रे वा अश्विनौ । मै० सं०३।४ । ४ ॥ तथा ऋग्वेद में कहा हैऋता । १।४६ । १४ ॥ ऋतावृधा । १ । ४७।१॥
अर्थात् अश्विद्धय = नासत्य, सत्य स्वरूप हैं । वे ही सत्य से बढ़ने वा बढ़ाने वाले भी हैं।
यास्क ने नासत्यों को नासिकाप्रभव इस लिये लिखा है कि उस का अभिप्राय प्राणापान से है । ये प्राणापान नासिका से ही उत्पन्न होते हैं।
ब्राह्मणों में अश्विद्वय को अध्वर्दू भी कहा हैअश्विनावध्वयू । श० १।१।२। १७॥
और क्योंकि राष्ट्ररूप महायज्ञ के अर्ध्वयू सभाध्यक्ष वा सेनाध्यक्ष भी होते हैं, अतः निरुक्त में अश्विद्वय का अर्थ पुण्यशील दो राजे भी कहा है । ऋग्वंद १०३९।१९॥ में तो स्पष्ट ही राजानौ अश्विद्वय का विशेषण है।
। ये सारे अर्थ एक ही भाव को कह रहे हैं । वह भाव है व्यापनशीलता का। यदि ये सारे अर्थ न माने जावें, तो अनेक मन्त्रों का अर्थ खुलता ही नहीं।
इस से भले प्रकार ज्ञात होता है कि ब्राह्मणान्तर्गत, मन्त्र, और उनके पदों का व्याख्यान अत्यन्त युक्त है । यास्क ने भी वही व्याख्यान स्वीकार कर लिया है । जो पाश्चात्य यास्क के, और ब्राह्मण के व्याख्यानों को काल्पनिक कहते हैं, उन्हें वेद समझ ही नहीं आया ।
७-ऋषियों को जो अर्थ अभिप्रेत था, ब्राह्मण उन से
सर्वथैव उलटा अर्थ समझते हैं । जैसेकस्मै देवाय हविषा विधेम । हिरण्यपाणि का अर्थ ब्राह्मणों में विचित्र है।
७-अब मैकडानल महाशय उदाहरण-विशेषों से ब्राह्मणों के विचित्र अर्थ का प्रदर्शन कराते हैं । अतः हम उन के इस कथन की परीक्षा करते हैं।
कः का प्रजापति अर्थ ब्राह्मणों में ही नहीं किया गया, प्रत्युत मैत्रायणी आदि शाखाओं के ब्राह्मणपाठों में भी किया गया है । जैसे
कन्त्वाय कायो यद्वै तदरुणगृहीताभ्यः कमभवत्तस्मात्कायः।
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