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महाश्रोत्रिय, सत्यवक्ता महाशय लगभग समकालीन थे । इन्हीं से दो, चार, छ: पीढी पहले अनेक वैदिक ऋषि हो चुके थे । इन ऋषियों द्वारा वेदार्थ का प्रचार निरन्तर होता रहता था | और दो चार पीढियों में वह अर्थ भूल भी नहीं सकता था । विशेषतः जब परम्परा अविच्छिन्न थी। ऐसी अवस्था में जो पाश्चात्य घर बैठे ही मन्त्रोंका अनृत अर्थ करके अपने को वेदज्ञ मानते हैं और ब्राह्मणादि-ग्रन्थों के अर्थ को अनर्थ समझते हैं, वे भ्रम से ही अपने बहुमूल्य जीवनों को यथार्थ वेदार्थ से वश्चित कर रहे हैं।
हम पहले भी पृ० २८, २९ पर कह चुके हैं कि मौलिक ब्राह्मणों के प्रवक्ता ही वेदार्थ के द्रष्टा होते रहे हैं । वही मौलिक ब्राह्मण इन ब्राह्मणों में महाभारत-काल में समाविष्ट किये गये । अतः इन्हीं ब्राह्मणों के अन्दर वेदों के मूलार्थ को प्रकाश करने वाली सामग्री विद्यमान है । इन में कहीं २ ही मन्त्रोंके भावों का व्याख्यान नहीं, प्रत्युत सारा ब्राह्मण-वाङ्मय ही मन्त्रार्थ प्रकाशक है । ब्राह्मणों में अल्पाभ्यास के कारण ही पाश्चात्यों ने इन के ठीक अभिप्राय को नहीं समझा । इतने लेख से ही मैकडानल की तीसरी, चौथी और पांचवी प्रतिज्ञा का उत्तर समझ लेना।
६-यह व्याख्यान प्रायः काल्पनिक होते हैं । श्राह्मणों के व्याख्यान यथार्थ हैं, यह तो ब्राह्मण और वेद के गम्भीरपाठ से ही ज्ञात हो सकता है । हां, उदाहरण मात्र हम अश्विन् शब्द को लेते हैं।
पूर्वपक्ष (क) मैकडानल अपनी Vedic Mythology पृ० ५३ (सन् १८९८) पर लिखता है
"As to the physical basis of the Acvins tlie language: of the Rsis' is so vague that they themselves do not seem to have understood what phenomenon these deities represented."
(ख) मैकडानल ने अपनी Vedic Reader. पृ० १२८ पर भी ऐसा ही लिखा है । यही महाशय पृ० १२९ पर पुनः लिखते हैं
“The physical basis of the Asvins has been a puzzle ___ *एफ० इ. पारजिटर महाशय अपने ग्रन्थ Ancient Indian Historical Tradition (सन् १९२२) में महाभारत-काल को ईसा से लगभग १००० वर्ष पूर्व ही मानते हैं । यह उनकी सरासर खेंचतान है। इसका सविस्तर उत्तर हम अन्यत्र देने का विचार रखते हैं।
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