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(१७) केशी दार्य प्रतीत होता है। केशी ह दाभ्यो दीक्षितो निषसाद । कौ० ७ । ४ ।। (ड) इसी केशी दार्य को (१८) केशी सात्यकामिः ने उपदेश दिया था । (ढ) इसी केशी दार्य ने (१९) षण्डिक औद्भाारे को पराभूत किया था । (ण) संख्या (५) वाले उद्दालक आणि का विचार(२०) शौनक स्वेदायन से हुआ था । देखा
उद्दालको हारुणिः...। हन्तैनं ब्रह्मोद्यमाह्वयामहा इति । केन वीरेणेति । स्वदायनेनेति । शौनको ह स्वंदायन आस ।
__ शतपथ ११।४।१।१॥ (त) इसी उद्दालक आरुणि के समीप(२१) शोचेय प्राचीनयोग्य आया थाशौचेयो ह प्राचीनयोग्यः । उद्दालकमारुणिमाजगाम ।
श० ११ । ५। ३ । १॥ (थ) इसी उद्दालक के समीप (२२) प्राति कौशाम्बेय कौसुराबन्दि ने ब्रह्मचर्य वास किया था
प्रोतिर्ह कौशाम्बेयः । कौसुरुबिन्दिरुद्दालक आरुणौ ब्रह्मचयमुवास । श० १२।२।२।१३।।
(द) इस प्रोति कोसुरुबिन्दि का पिता
(२३) कुसुरुबिन्द। उद्दालक का पुत्र वा शिष्य ही था । क्योंकि तैत्तिरीय संहिता में निम्नलिखित वाक्य मिलता है
कुसुरुबिन्द औद्दालकिरकामयत । ७।२।२॥ (ध) इसी उद्दालक आरुणि के समीप
* दालभ्य और दाभ्यं में कोई भेद नहीं है। देशविशेषों में ग्रन्थों के लिखे जाने के कारण ही यह ल् और र का भेद हो गया है।
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