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कहा, तो ब्राह्मण तो स्वयं वेद के अनुकूल और समीप हैं, न कि दूर ।
. बात वस्तुतः यह है कि वेदों के शब्द यौगिक वा योगरूढ हैं। इसीलिये विशेष्य, विशेषण की रीति से विशेषण धात्वर्थ मात्र ही देता है। वहीं विशेषण दूसरे स्थान पर स्वयं नाम अर्थात् योगरूढ बन जाता है। श्राह्मणों में इसी अभिप्राय से वैदिक शब्दों के अर्थ कहे हैं । अनित्येतिहासप्रिय पाश्चात्यों को यह अच्छा नहीं लगता, अतः उन्हाने विना ब्राह्मणों के समझे उन्हें वेदार्थ से परे हटा हुआ कहा है । उपनिषद् में यथार्थ कहा है_ यथोणेनाभिः सृजते गृह्णते च । मुण्डक १ । ७॥
पहले पाश्चात्यों ने दो, अढ़ाई सहस्र वर्ष पुरातन भाषाओं के अधूरे भाषाविज्ञान को बना लिया, फिर उसे लाखों वर्ष पुरानी ब्राह्मण-भाषा वा नित्य वेदभाषा से समता में रख कर सब को एक संग तोला । जब उनका स्वप्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ, तो स्वयं ही ब्राह्मणादि ग्रन्थों को स्वल्प मूल्यवान् कह दिया | अहो ! आश्चर्य इस निराधार कल्पना पर । आप ही एक सिद्धान्त बनाया और स्वयं उसे सत्य मान लिया । फिर और सब कुछ तो अशुद्ध होना ही था । ४-वेदों के मूलार्थ पर प्रकाश डालने योग्य सामग्री का ब्राह्मणों
में अभाव ही है। ५-ब्राह्मणों में कहीं २ ही मन्त्रों के भाव का व्याख्यान है। ६-यह व्रगख्यान प्रायः अत्यन्त काल्पनिक होते हैं।
__४-पश्चिम में रोथ, वैबर, मैक्समूलर, ओल्डनवर्ग, गैलनर, बिटने, मैकडाल प्रभृति ने जो अनुवाद वेदार्थ के नाम से छापे हैं, वे वेदार्थ तो है नहीं, उन के अपने मनों की कल्पनाएं अवश्य हैं । जब उनको वेदार्थ का पता ही नहीं लगा, तो वे उसकी तुलना ब्राह्मणान्तर्गत वेदार्थ से कैसे कर सकते हैं।
अपने 'ऋग्वेद पर व्याख्यान' पृ०६३ पर हमने सर्वानुक्रमणी के आधार पर तीन ऋषि-कुलों के पांच २ नाम वंश-क्रम से लिखे थे। उन में से एक वंशावली यह है
ब्रह्मा
वसिष्ठ
शक्ति
पराशर
व्यास
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