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प्रैते वदन्तु पू वयं वदाम ग्रावभ्यो वाचं वदता वदयः । यदद्रयः पर्वताः साकमाशयः श्लोकं घोषं भरथेन्द्राय सोमिनः॥
१०। ९४ । १॥ इस आन्तम मन्त्र में तो श्लोक और घोष को विशेष्य विशेषण बना कर सारा विवाद मिटा दिया है । अर्था । श्लाक, घोष अथवा वाणी का पर्याय है । शेष शब्द भी वेद में ही वाणी के अर्थों में मिल जाते हैं ।
हमारे इस लेख से यह न समझना चाहिये कि मन्द्रा, धारा, जिह्वा, सरस्वती, और ऋगादि शब्द ओर अर्थों में नहीं आ सकते । वेदों में शब्दों के यौगिक होने से प्रकरणानुकूल ही अर्थ होता है। वह अर्थ मूलतः धातु सम्बन्ध से एक वा अनेक प्रकार का है । पर उन सब में वह योगरूढ बनते समय प्रकरणवश कुछ ही अर्थों में रह गया है । वे सब अर्थ भाथ्यकर्ता के ध्यान में रहने चाहियें । जो जहां संगत हो वह उसे वहीं लगावे |
हमारे पूर्वोक्त कथन पर पाश्चात्य लोग कई तर्क करेंगे । अतः उन के सब तकों के उत्तर के लिो हम एक ऐसे शब्द पर विचार करना चाहते हैं। जिस से सारे ऐसे तकों का अन्त हो जावे । और वह विचार यह भी सिद्ध कर दें कि ब्राह्मणार्थ वेद का यथार्थ अर्थ है वह वेद से बहुत परे हटा हुआ नहीं, ऐसा शब्द अध्वर है।
निघण्टु ३।१७॥ में अध्वर को यक्ष का पर्याय कहा गया है। शतपथादि ब्राह्मणों में भी बहुधा ऐसा कथन मिलता है। देखो इस कोष में अवर शब्द । ब्राह्मणों ने क्यों यह पर्याय बनाया, इसका कारण वेद के अन्दर ही मिलता है । ऋग्वेद में आया है--
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।।१।४॥
अर्थात्-हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् जिस हिंसादि दोष राहत यज्ञ को आप सर्वत्र सर्वोपरि होकर विराजते हो ।
यहां अध्वर शब्द यज्ञ का विशेषण है । विशेषण होने से यही शब्द अन्यत्र यज्ञवाची बन गया है।
प्रश्न-क्या सारे ही विशेषण पर्याय बन जाते है।
उत्तर--नहीं | जिन विशेष्य, विशेषणों के गुण की.विशेष समानता होजावे, वे ही पर्याय बनते हैं।
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