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मन्द्रया देव जिह्वया ।
५।२६।१॥
यं याचाम्यहं वाचा सरस्वत्या ।
५|७|५||
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अब रहे ऋक् और श्लोक (दि शब्द । इनके विषय में मैकडानल महाशय ने भी स्वसंदेह प्रकट किया है । 'भण्डारकर कमेमोरेशन वाल्यूम' वाले अपने लेख में वे लिखते हैं “Thus among the synonyms of vae 'speech' appear such words as sloka, nivid. re. gatha, anustubh which denote different kinds of verses or compositions and can never have been employed to express the simple meaning of 'speech." अर्थात् यह शब्द रचनाविशेष के लिये आ सकते हैं, साधारण वाक् के लिये नहीं । अब हम देखेंगे कि वेद वा शाखा प्रन्थों में, निघण्टु वा ब्राह्मणों में आये हुए ये शब्द इन अर्थों में मिलते हैं या नहीं ।
ऋचा गिरा मरुतो देव्यदिते । ऋचं वाचं प्रपद्ये ।
ऋचो गिरः सुष्टुतयः ।
ऋचं गाथां ब्रह्म परं जिगांसन ।
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ऋ० ८|२७|५||
य० ३६।१॥
ऋ० ९१।१२।।
कौ० सू० १३५७९
इन प्रमाणों में ऋक् शब्द वाकू के विशेषणों में आया है । अतः इसका वागर्थ होना सन्देह से परे है ।
श्लोक शब्द रचना-विशेष के लिये तो आतां है, पर वाणी के लिये भी ऋग्वेद में वर्ता गया है, इस में कोई सन्देह नहीं । देखो यजुर्वेद में एक मन्त्र हैं"विभाहि । श्रोत्रम्मे श्लोकय । १४ । ८॥
चक्षुर्म
अर्थात् — मेरे नेत्रों को प्रकाशित और कर्ण को श्रवणयुक्त कर ।
यहां श्लोकय क्रियापद स्पष्ट करता है, कि लोक शब्द रचनाविशेष के
लिये ही नहीं आता, प्रत्युत साधारण वाणी = शब्द = श्रवण के सम्बन्ध में भी आता है।
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पुनः ऋग्वेदीय मन्त्र भी यही स्पष्ट करते हैं
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ऋतस्य लोको बधिरा ततर्द कर्णाः |४| २३ |९ ॥
अर्थात् - सत्य की वाणी बधिर कानों का नाश करती है । मिमीहि लोकमास्ये | १|३८|१४||
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