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ऐसे ही अष्टाध्यायी आदि अन्य ग्रन्थों में भी ब्राह्मणों को वेद नहीं माना । इस के उदाहरण हम ने पाणिनीय सूत्रों से पहले दे दिये हैं । पूर्वपक्षियों के अष्टाध्यायीस्थ प्रमाण इतने निर्बल हैं कि विद्वान् स्वयं उन का उत्तर दे सकते हैं ।
इस सारे लेख से यह ज्ञात हो चुका है, कि मन्त्र संहिताएं ही वेद हैं । वही अपौरुषेय हैं । महाभारतोत्तर-काल में एक याचिक काल आया । उस में ब्राह्मणों का अत्यन्त उपयोग होने वा अति मान होने से, ब्राह्मणों को औपचारिक दृष्टि से वेद कहा. गया । * समय के व्यतीत होने पर शबर आदि नवीन आचार्यों ने उस औपचारिक भाव को भुला कर इन्हें वेद ही कहना आरम्भ कर दिया । इस लिये जनसाधारण भी इन्हें वेद समझने लग पड़े । बस यही सारी भूल का कारण था । ऋषि दयानन्द सरस्वत्ती ने यह भूल देखी और इसी लिये अनेक युक्ति प्रमाणों के अनन्तर अपनी ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के " वेदसंज्ञाविचार विषय" में यह लिखा
इत्यादि बहुभिः प्रमाणैर्मन्त्राणामेव वेदसंज्ञा न ब्राह्मणग्रन्थानामिति सिद्धम् ।
* गौतम धर्मसूत्र का टीकाकार मस्करीयत्र चाम्नायो विदध्यात् । १ । ५१ ।। सूत्र पर टीका करते हुए कहता है
अथवा - आम्नायशब्देन मनुरुच्यते ।
अर्थात् आम्नाय शब्द से मनुस्मृति का भी ग्रहण हो सकता है। जब आम्नाय पद किसी धर्मशास्त्री की दृष्टि में अपने मूल - मनुस्मृति के लिये उपचार से प्रयुक्त हो सकता है, तो याशिकों की दृष्टि में यज्ञक्रियाप्रधान ग्रन्थों के लिये उपचार से वेद्र शब्द प्रयुक्त होगया, इस में अणुमात्र भी आश्चर्य नहीं ।
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