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जहां मूल में पूर्वोद्धत श्लोक छपा है वहां उस ने उसकी व्याख्या भी नहीं की। उस से बहुत आग यह श्लोक स्वयं लिख कर वह टीका करता है । इस से भी मूल पाठ में श्लोक का प्रक्षिप्त होना पाया जाता है । श्लोक का अर्थ करके अन्त में महिंदास लिखता है
एतादृशपठनं शाखाया अध्ययनं [ यत्र ] स यजुर्वेदः । तच तैत्तिरीयशाखायामेवास्ति ।
इसी लिये हम ने कहा था कि यह श्लोक किसी तत्तिरांय-शाखा-भक्त का मिलाया हुआ प्रतीत होता है ।
(ब ) ब्राह्मण ग्रन्थों के ऋषि प्रोक्त होने में और भी प्रमाण है । मीमांसा सूत्र १२ । ३ । १७ ॥ ऐसे पढ़ा गया है
मन्त्रोपदेशो वा न भाषिकस्य प्रायोपपत्तेर्भाषिकश्रुतिः । इसी के भाग्य में शबर कहता हैभाषास्वरो ब्राह्मणे प्रवृत्तः ।
जब ब्राह्मण का स्वर ही भाषा स्वर अर्थात् लोकिक स्वर है, तो वह ईश्वर प्रोक्त कैसे हो सकता है । यह बात शिक्षा ग्रन्था वा भाषिक सूत्र से सिद्ध होती है । विस्तरभय से अधिक नहीं लिखा गया । सत्यव्रत सामश्रमी जी ने त्रयी परिचय में इसे भले प्रकार लिखा है।
(ट) ब्राह्मणादि ग्रन्थों में मन्त्रों की प्रकेि धर के "इति" कह कर न केवल मन्त्रों का व्याख्यान ही किया है, प्रत्युत उन के ऋषि देवता आदि भी दिये हैं । ब्राह्मणों के प्रमाणों से हम वेदों का आदि सृष्टि में होना कह चुके हैं। मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि उस से बहुत पीछे हुए हैं । उनका उल्लेख करने वाले ग्रन्थ उस से भी पीछे के होंगे। इन मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि विशेषों के नामों का सामान्यार्थ हो भी नहीं सकता । अतः ब्राह्मणादि ग्रन्थ बहुत नये और ऋषि-प्रोक्त ही हैं । इस के उदाहारण काठक संहिता में देखो
महि त्रीणामवो ऽस्तु । ( का० सं० ७ । २॥) इत्येष प्राजापत्यस्त्रिचः । ७॥९॥
स वामदेव उख्यमनिमविभस्तमवैक्षत स एतत् सूक्तमपश्यत् कृणुष्व पाजः प्रसितिं न पृथ्वीम्, इति । का० सं० १०॥५॥
इत्यादि।
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