________________
(३) ब्राह्मण और वेदार्थ ।
निरुक्त और निघण्टु का आधार ब्राह्मण हैं ।
निरुक्त सब से पुराना ग्रन्थ है, जो इस समय मिलता है, और जिस में वेदार्थ का विस्तृत निदर्शन है । 'यह ऋग्वेदीय लोगों के पठितव्य दश ग्रन्थों में से एक है ।' दाक्षिणात्य ऋग्वेदाध्यायी इस समय भी इस का पाठ करते हैं । इस निरुक्त से पहले भी ऐसे ही अनेक निरुक्त ग्रन्थ थे, पर वे अब लुप्तप्रायः हैं । * निरुक्त का मूलनिघण्टु है । निरुक्त और निघण्टु दोनों यास्क -प्रणीत हैं । निघण्टु प्राचीन वैदिक कोषों का नमूना है । इस निघण्टु से पहले और भी अनेकों निघण्टु थे । निरुक्त ७ | १३ | में यास्क स्वयं उनका स्वरूप कथन करता है
1
|
अथाताभिधानैः संयुज्य हविश्वोदयति – इन्द्राय वृत्रघ्ने । इन्द्राय वृतुरे | इन्द्रायाँहोमुचे, इति । तान्यप्येके समानन्ति । भूयांसि तु समाम्नानात् । यत्त संविज्ञानभूतं स्यात् प्राधान्यस्तुति तत् समाने ।
अर्थात् - 'कई एक आचार्य ऐसा समाम्नाय करते हैं। जो प्रधान स्तुतिवाला ( अनि आदि ) देवता - नाम है, उसका मैं समानाय करता हूं ।'
कौत्सव्य प्रणीत निरुक्त-निघण्टु भी जो आथर्वण परिशिष्टों में से एक है, पुराने निघण्टु-ग्रन्थों का ही नमूना मात्र है ।
यास्कीय निघण्टु और इस आथर्वण निघण्टुं के देखने से निश्चय होजाता है कि प्राचीन निघण्टु ग्रन्थों का आधार प्रधानतया ब्राह्मण ही थे । निघण्टु-पठित अर्थो और ब्राह्मणान्तर्गत अर्थों की निम्नलिखित तुलनात्मक सूची से यह बात बहुत ही स्पष्ट होजायगी ।
पता निघण्टु
१|१४|| अत्यः अश्व
३|१७|| अध्वरः यज्ञ
५८
Jain Education International
ब्राह्मण
अत्योऽसि (अश्व) अध्वरो वै यशः
* G. Oppert के सूची पत्र II. 610 पर दक्षिण में किसी घर में उपमन्यु कृत निरुक्त का अस्तित्व बताया गया है ।
+ देखो मेरा लेख, मासिक पत्र ज्योति वैशाख सं० १९७७, लाहौर ।
* इसका देवनागरी संस्करण आर्ष ग्रन्थावली, लाहौर में छप चुका है।
पता
तै० ३|८|९|१||
श० १|४|१|३८ ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org