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नहीं । ऋक्, यजु और साम, इन तीनों का समूह त्रयी विद्या है। इन्हीं को शतपथ के प्रमाण में ऋग्वद, यजुर्वेद आर सामवेद कहा है । इसी से स्पष्ट है कि ऋक् आदि सन्द ऋग्वेदादि के पर्यायवाची हैं।
प्रश्न-तीनों प्रमाणों को समता में रखना उचित नहीं। शतपथ में मन्त्र ब्राह्मण समुदाय का कथन है और कौषीताक आदि में मन्त्रमात्र का ।
उत्तर-ऐसा निमूल कल्पना निरर्थक है । जब इस प्रकरण में एक सामान्य विषय का कथन है, और पूर्व प्रदर्शित संगात भी एक ही है, तो तुम्हारी बात को कोई विद्वान् न मानगा । और ब्राह्मण-ग्रन्थ तो आदि सृष्टि में प्रकट भी नहीं हुए। वे काल, काल पर बनते चले आये हैं । उनका सङ्कलन महाभारत काल में हुआ है। यह ब्राह्मण-ग्रन्थ समग्ररूप से बहुत पुराने नहीं हैं । अतः आदि सृष्टि के काल के कथन में वेद शब्द से ब्राह्मण का भी अभिप्राय लना अनुचित ही नहीं, सरासर खेचतान है । जब इन प्रकरणों में वेद शब्द से ब्राह्मण नहीं लिया गया, तो अन्यत्र भी आर्ष वाङ्मय में ऐसा ही समझना ।
प्रश्न-कठ आदि ब्राह्मणों को नवीन नहीं समझना चाहिये । मीमांसा सूत्र १ । १ । २८ ॥ पर शबर ने ब्राह्मणों के प्रमाण देकर, आगे सूत्र ३०-३२ तक यही सिद्ध किया है कि ब्राह्मणादि भी अपौरुषेय हैं । सूत्र ३० पर वह किसी पुराने शास्त्र का प्रमाण ऐसे धरता है
स्मयते च-वैशम्पायनः सर्वशाखाध्यायी । कठः पुनरिमां केवला शाखामध्यापयां बभूव, इति ।
अर्थात् कठादि शाखा वा ब्राह्मण कठादि ऋषियों से पहले भी विद्यमान थे ।
उत्तर-शबरस्वामि ने मीमांसा, तर्कपाद के इस वद-अपौरुषेयता आधिकरण में जो अनेक उदाहरण दिये हैं, वे उचित नहीं हैं। शबर तो ब्राह्मणों को वेद मानता था । अतः उसन ऐसे उदाहरण दे दिये । अन्यथा ऐसे सब उदाहरण मन्त्रों से देने चाहिये थे।
___ कठशाखा वा प्राह्मण, वैशम्पायन के समीप भले ही हों, पर व्यास से पहले नहीं थे | आदि सृष्टि में ब्राह्मण तो क्या, शाखायें वा उनका सामग्री भी नहीं थी तब तो मूल मन्त्र संहिनाएं ही थीं। इस विषय का प्रमाण आगे दिया जाता है । उस
* देखो साबर मीमांसाभाष्य मन्त्राश्च ब्रामणश्च वेदः ।२।१॥३३॥
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