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कांचिन्मायां कुर्यात् । ११ ॥ कंचिदितिहासमाचक्षीत । १२॥ किञ्चित् पुराणमाचक्षीत । १३॥
इन तीनों के साथ, जैसा हम पूर्व कह चुके हैं, वेदपद का औपचारिक प्रयोग है । इससे आगे १५वीं कण्डिका में कहा है
आचष्टे सर्वान् वेदान् ।
अर्थात् सब वेद कहे । यहां ब्राह्मणों का स्वरूप भी कथन नहीं किया गया, और वास्तविक तथा औपचारिक भाव से वेद भी कह दिये । इस लिये ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषि स्वप्न में भी ब्राह्मणों को वेद न मानते थे ।
इसी प्रस्तुत विषय में, हमारे सिद्धान्त को पुष्ट करने वाले और भी प्रमाण देखो । प्रायः सारे ही ब्राह्मणों में प्रजापति अर्थात् परमात्मा से वेद के प्रकाशित होने के सम्बन्ध में कुछ वाक्य आये हैं । कतिपय ब्राह्मणों के वे वाक्य नीचे दिये जाते हैं
"स एतानि त्रीणि ज्योतीष्यभ्यतप्यत सो ऽग्नेरेव! ऽसृजत वायोर्यजूंष्यादित्यात् सामानि । स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतप्यत ।। अथैतस्या एव त्रय्यै विद्यायै तेजोरसं प्रावृहत् । एतेषामेव वेदानां भिषज्याय स भूरित्यचां प्रावृहत् । कौ० ६ । १०॥
स इमानि त्रीणि ज्योतीष्यभितताप । तेभ्यस्तप्तभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्ताग्रेऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः ॥ ३ ॥ स इमांस्त्रीन् वेदानभितताप । तेभ्यस्तप्तभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त भूरित्यग्वेदात् ॥ ४ ॥ श० ११ । ५। ८॥
__स एतास्तिस्रो देवता अभ्यतपत् । तासां तप्यमानानां रसान् प्राबृहत् । अमेत्रचो वायोर्यजूषि सामान्यादित्यात् ॥२॥ स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतपत् । तस्यास्तप्यमानाया रसान् प्राबृहत् । भूरित्यग्भ्यः ॥३॥छान्दोग्य उ० ४ । १७ ॥
इस विषय के और भी ब्राह्मण वाक्य दिये जा सकते हैं, पर इतनों से ही यथेष्ट अभिप्राय निकल पड़ता है। यहां ऋचः ओर ऋग्वेद शब्द पर्यायवाची ही है । 'भू' ल्याइति ऋचाओं से उत्पन्न हुई अथवा ऋग्वेद से, इस कहने में कोई भेद
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