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प्रश्न-सनातनधर्मोद्धार का कर्ता नकछेदराम खण्ड २ पृ०५३० पर लिखता है
__“जहां केवल मन्त्रों को कहना होता है वहां केवल ऋक् आदि शब्दों ही का प्रयोग होता है जैसे 'अहे बुभिय' इत्यादि मन्त्रों में और जहां मन्त्र और ब्राह्मण के समुदाय को कहना होता है वहां केवल ऋक् आदि शब्द का प्रयोग नहीं होता किन्तु ऋग्वेद आदि शब्दों ही का प्रयोग होता है जैसे ‘एवं वा अरे.' इत्यादि पूर्वोक्त ब्राह्मण वाक्य में ।"
क्या यह लेख उचित है।
उत्तर-ऐसे लेख प्रकट करते हैं कि लेखक वैदिक वाङ्मय से अपरिचित ही है। मध्यम-कालीन मीमांसकों के कुछ भ्रमोत्पादक लेख पढ़ कर ही उसने ऐसा लिख दिया है । नकछेदराम ने जो प्रमाण ‘एवं वा अरे' शतपथ से उद्धृत किया है, उसे ही नहीं देखा | वहां भी तो ऋग्वेदादि से उपनिषदों को पृथक् कहा है। काशी के पाण्डत ने अपने दिये प्रमाण को ही जब पूरा नहीं विचारा, तो और वह क्या लिखेगा।
ऋक् पद मन्त्रों के लिये आवे, और ऋग्वेदादि मन्त्र ब्राह्मण के समुदाय के लिये वर्ते जावें, ऐसा कोई नियम नहीं । ये दोनों शब्द मन्त्रसंहिता के लिये ही प्रयुक्त होते रहे हैं । इसमें प्राचीन ब्राह्मणों के प्रमाणों को देखो। शतपथ ब्राह्मण १३ | ४ | ३ ॥ की अनेकों कण्डिकाओं में क्रमशः कहा हैतानुपदिशति-ऋचो वेदः....... 'ऋचाए सूक्तं व्याचक्षण ॥३॥ तानुपदिशति-यजूषि वेदः यजुषामनुवाकं व्याचक्षण ॥६॥ तानुपदिशति-आथर्वणो वेदः 'अथर्वणामेकं पर्व व्याचक्षण ॥७॥ तानुपदिशति-सामानि वेदः ‘साम्नां दशतं ब्रूयात् ॥ १४ ॥
अब विचारन की वार्ता है, कि यहां वेद शब्द केवल ऋगादि के लिये ही प्रयुक्त हुआ है । ऋगादि मन्त्र हैं। और ऋग्वेदीय आदि ब्राह्मणों में सून आदि अवान्तर विभाग है भी नहीं । इस लिये ऋग्वेदादि शब्द भी मन्त्र संहिताओं के लिये ही वर्ते गये हैं, ब्राह्मणों के लिये नहीं, ऐसा मानना ही युक्तियुक्त है।
शतपथ के इसी प्रकरण की ८, ९, १० कण्डिकाओं में जो अङ्गिरसो वेद, सर्पविद्या वेद, देवजनविद्या वेद, संक्षाएं हैं, तो यह अथर्ववेद के अवान्तर विभागों के ही नाम हैं। इन सब में 'पर्व' विद्यमान हैं। शेष मायावेद, इतिहासावेद, पुराण वेद, परम्परा से आने वाले संग्रहमात्र हैं । ये पूरे प्रन्धरूप में नहीं हैं । अथवा इनका अवान्तर विभाग नहीं है । इसी लिये इनके साथ कहा है
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