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म प्रमाण भी है । गोपथ ब्राह्मण पू० १ । १२ ॥ में कहा है
स एतं त्रिवृतं सप्ततन्तुमेकविंशतिसंस्थं यज्ञमपश्यत् ।
यहाँ यज्ञ का दखना कहा है । यज्ञ क्रिया है । इस क्रिया का भाव ऋषियों ने मन्त्रों में देखा । वैसे ही ब्राह्मण वाक्यों का भाव भी उन्हों ने जाना था । पुनः जैस महाभाष्य आदि में
पश्यति त्वाचार्यः । (कील० सं० भाग १ पृ० २४)
सैकड़ों वार ऐसा पाठ श्रद्धा से कहा गया है, वैसे ही कहीं २ अर्थवादरूप से ब्राह्मणों के लिये “श” धातु का प्रयोग हुआ है ।
प्रश्न-महामाहावेद्रावण का कर्ता कहता है
किञ्च परमर्षिर्गोतमो वेदप्रामाण्यनिरूपणावसरे स्थूणानि खननन्यायेन वेदनामाण्यं द्रढयितुमेवाऽऽशशङ्के “तदप्रामाण्यमनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः।" तस्य वेदस्याप्रामाण्यमनृतव्यामतपुनरुक्तदोषेभ्यः तत्रानृतं यथा “पुत्रकामः पुत्रष्टया यजत्" अनुष्ठितायामपि चेष्टौ न युज्यन्ते पुरुषाः पुरिति द्रष्टार्थस्यास्य वाक्यस्याऽप्रामाण्ये "ऽग्रिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम” इत्यदृष्टार्थकस्य वाक्यस्य प्रामाण्ये कथमाश्वासः । अत्र हि सूत्रस्थतत्पदन पराम्रष्टुमिष्टस्य वेदस्याऽप्रामाण्यमाशङ्कमानः “अमिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम" इति ब्राह्मणस्याप्रामाण्यं दर्शयामास गोतमः । याद नाम ब्राह्मणं न वेदस्तहि वंदाप्रामाण्यसाधनावसरे ब्राह्मणस्याप्रामाण्यप्रदर्शन कर्णस्पर्श काटचालनायितं स्यात् । न हि प्रेक्षावान् 'मैत्रवाक्यं न विश्वसिही' ति कश्चन बोधयश्चत्रवाक्यस्य मिथ्यात्व प्रसाधयेत तदवश्यं ब्राह्मणं वेद इति परमषिरनुमन्यत इति । नच सूत्रस्थतत्पदन परमर्षिाभिप्रेति निर्देष्टम् “आमिहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम' इति ब्राह्मणवाक्यम् । आपतु यत्किञ्चिदन्यदेव संहितावाक्यमिति सर्व सिकताकृपायितमिति वाच्यम् ।*
"तदप्रामाण्यम् ," इस न्याय सूत्र से वेद का प्रमाण सिद्ध करने के लिये पूर्व पक्ष किया है । उस पर भाष्यकार महर्षि वात्स्यायन जी ने ब्राह्मण पुस्तकों के उदाहरण दिए हैं । इससे न्यायकर्ता महार्षे का आभिप्राय प्रसिद्ध है कि ब्राह्मण पुस्तक भी वेद ही है क्योंकि वेद का प्रमाण सिद्ध करने में अन्य का उदाहरण देना नहीं बन
* ऋषि दयानन्द सरस्वती ने गोतम के प्रमाण से ब्राह्मणों का वेद न होना सिद्ध किया था। उसका यह उत्तर मोहनलाल ने लिखा | इसका उचित, पर पुनरुनदोष-पूर्ण उत्तर भीमसेन ने आयीसद्धान्त चैत्र संवत् १९४५ भाग १, अङ्क ११, पृ. १६६, १६७ पर दिया । उसी उत्तर को कुछ काट कर, हम ने यहां धरा है।
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