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के साथ २ ऋषियों ने इतिहास, पुराणादि का भी प्रवचन कर दिया है। निरुक्त में भी कहा है---
ऋषेर्दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्याख्यानसंयुक्ता १०|१०||१०|४६ इत्याख्यानम् ११।१९ ।। ११।२५ ।। ११।३४ ।।
इस का भी यही अभिप्राय हैं कि जब वेदार्थ इतिहासादि से संयुक्त कहा जाता है, तो वह प्रिय और रुचिकर लगता है । अस्तु ! यदि ब्राह्मणों को भी वेद मानोगे तो उनका अर्थ किन ग्रन्थों में बताओगे । मन्त्रार्थ तो ब्राह्मण में विद्यमान है, पर ब्राह्मणार्थ कहीं नहीं । अतः मन्त्र ही वेद है, और ब्राह्मण उनका व्याख्यानमात्र है |
ऋषियों को वेदार्थ का ज्ञान तो परमात्मा ने ही कराया । तब ऋषियों ने उस अर्थ को आख्यानादि के साथ प्रवचन की भाषा में कहा । वही वेदार्थ ब्राह्मण हुआ | इसी लिये वात्स्यायन ने वेदार्थद्रष्टा कह कर सारी बात को खोल दिया है ।
और भी जहां कहीं आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण वाक्यों के साथ “अपश्यत् " आदि क्रियापद लगा कर उनका देखना कहा है, तो वहां भी पूर्वोक्त भाव से ही कहा है । वेदार्थरूप ब्राह्मणों के उन भावों को ही ऋषियों ने मन्त्रों में देखा था । तत्र प्रवचन की भाषा में ऋषियों ने उन तथ्यों को कहा । ब्राह्मण वाक्य जैसे के तैसे देखे नहीं गये । मूल मन्त्र ही नित्य-आनुपूत्र के साथ देखे गये हैं । इसी अभिप्राय से निरुक्त २|११|| में निम्नलिखित ब्राह्मण वाक्य उद्धृत हैं
तद् यदनांस्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भ्वभ्यानर्षत ऋषयो Sभवंस्तदृषीणामृषित्त्वम् । इति विज्ञायते ।
ब्रह्म नाम वेद अर्थात् मन्त्रों का ही है । इसी ब्रह्म का ब्रह्मा आदि द्वारा व्याख्यान होने से ब्राह्मण नाम पड़ा। अतएव ब्रह्म को तो ऋषियों ने स्पष्ट देखा, ब्राह्मणों को वैसे नहीं | जैसा हम पूर्व कह चुके हैं, ब्राह्मणों का भावमात्र देखा गया था । इस
* यह मीमांसादि सर्व शास्त्रकारों का मत है ब्राह्मण तो क्या साधारण शाखाओं में नित्य आनुपूर्वी नहीं है । इस लिये ये वेद कैसे हो सकते हैं । शाखा आदिकों में आनुपूर्वी अनित्य है, इसका प्रमाण महाभाष्य ४ | ३|१०१ || पर देखोयद्यप्यर्थो नित्यो या त्वसौ वर्णानुपूर्वी सानित्या | तद्भेदाश्चैतद्भवति काठकं कालापकं मौदकं पैप्पलादकमिति ॥ + तुलना करो तैत्तिरीयारण्यक २ | ९ ||
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