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३-पाणिनि आदि के ग्रन्थ स्फूर्ति से प्रकट हुए हैं। ४-साधारण ग्रन्थ कांट छांट के बनाये जाते हैं ।
यहां भी ब्राह्मणों को मन्त्रों जैसा ऊंचा पद नहीं दिया गया । मन्त्र दृष्ट हैं और ब्राह्मण प्रोन हैं । आज तक किसी विद्वान् ने ब्राह्मणां की ऋषि आदि अनुक्रमणी नहीं सुनी । हां संहिताओं की ऋषि अनुक्रमणी तो होती है । और जो संहिताएं शाखा नाम में व्यवहृत होती हैं, तथा जिन में ब्राह्मण भाग सम्मिलित हैं, उन की अनुक्रमणिकाओं में भी ब्राह्मण भागों के ऋषि नहीं दिये । हां प्रजापति को सब ब्राह्मणों का ऋषि तो कहा है, अर्थात प्रजापति परमात्मा ने ही वेदार्थ सुझाया। तनिक विचारो जो चारायणीय संहिता का आर्षाध्याय है, उस मन्त्राषीध्याय कहते हैं । उस में ब्राह्मण भाग के एक दो सामान्य ऋषि तो कहे गये हैं, पर वसे ब्राह्मण भाग के ऋषि नहीं दिये गये । स्थानक १८ से आग उस में ऐसा पाठ है
ब्राह्मणाः प्रजापतेः । ब्राह्मणपठितान् मन्त्रानथोदाहरिष्यामः।
यहां सामान्यरूप से ब्राह्मणों का प्रजापति ऋषि कहकर ब्राह्मणान्तर्गत मन्त्रों के तो ऋषि दिये हैं, पर ब्राह्मणों का कोई ऋषि नहीं दिया । प्रजापति नाम परमात्मा के आतिरिक्त ऋषिविशेष का भी है । वह ब्रह्मा का समीपवती ही था । कहीं २ ब्रह्मा का नाम ही प्रजापति है । वही ब्राह्मणों का आदि प्रवचनकर्ता है । ब्राह्मणरूप में वेदव्याख्यान करने से ही उसे कहीं २ ब्राह्मणों का ऋषि कहा गया है । जहां और दो चार स्थलों में ब्राह्मणों के ऋषि कहे गये हैं, वे भी इसी गौण भाव से कहे गये हैं।
प्रश्न-वात्स्यायनमुनि तो स्पष्ट ही ब्राह्मणों के भी काष मानते हैं । वहां उन्हों ने गौण मुख्य भाव भी नहीं कहा । फिर तुम्हारा पक्ष कैसे माना जावे । देखो वात्स्यायन का लेख--
य एव मन्त्रब्राह्मणस्य द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते खल्वितिहासपुराणस्य धर्मशास्त्रस्य चेति । ४ । १।६२ ॥
उत्तर-यदि तुम वात्स्यायन भाष्य को आर्ष रीति से पढ़े होते तो कभी ऐसा प्रश्न न करते । वात्स्यायन तो स्पष्ट ही हमारा पक्ष कह रहा है । सूत्र २ । २ । ६७ पर वह लिखता है
य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः।
अतएव दोनों वाक्यों की तुलना से "ब्राह्मणस्य द्रष्टारः" का अर्थ “वंदार्थानां द्रष्टारः" ही है । हम प्राह्मणों को वेदव्याख्यान कह ही चुके हैं । हां, उस व्याख्यान
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