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मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् ।
आपस्तम्ब श्रौत्र सूत्र २४ । १ । ३१ ॥ सत्याषाढ श्रौतसूत्र ।। ।। ७ ॥ कात्यायन परिशिष्ट प्रतिज्ञासूत्र | बोधायन गृह्यसूत्र २ । ६ । ३ ॥
तथा--
मन्त्रब्राह्मणं वेद इत्याचक्षते ।
बांधायनगृह्यसूत्र २ । ६ | २ ||
पुनः
आम्नायः पुनमन्त्राश्च ब्राह्मणानि च ।
___कौशिक सूत्र : । ३ ॥ इत्यादि आर्ष प्रमाणों के होते हुए कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि ब्राह्मण वेद नहीं हैं।
उत्तर- श्रौतसूत्रों का जन्मदाता जब ब्राह्मण स्वयं कह चुका है कि वह वंद नहीं, तो कल्पसूत्रों के इन स्मार्त प्रमाणों का क्या मूल्य हो सकता है । जैमिनि मुनि मीमांसा दर्शन के स्मृतिपाद* में बलपूर्वक कहते हैं कि कल्पसूत्र स्मार्त हैं । उनका उतना ही प्रमाण है, जितना स्मृति का | स्मृति परतः प्रमाण है । उसकी अपेक्षा परतः प्रमाण होते हुए भी ब्राह्मण सहस्रों गुणा अधिक प्रमाण है । नहीं नहीं, वेदव्याख्यान होने से अत्यन्त पूज्य है । वे ऋषि जो इन ब्राह्मणों का प्रवचन कर चुके थे, कदापि इनके विरुद्ध प्रतिज्ञा नहीं कर सकते । इस लिये जब कुछ एक आचार्यों ने मन्त्र ब्राह्मण को वेद कहा है, तो वह औपचारिक भाव से ही हैं । जैसे आयुर्वेद, धनुर्वेद आद वेद ०.हाते हैं, और जैसे तन्त्रों की उक्तियों को भी मन्त्र कहा गया है, पुनः जैसे शतपथ १३ | ४ । ३ । १२, १३ ॥ में
इतिहासो वेदः। पुराणं वेदः।
इत्यादि, इन सबको औपचारिक भाव से बंद कहा गया है, वैसे ही आपस्तम्बादि श्रौतसूत्रों में यह औपचारिक लक्षण है । और यह भी तो अभी निश्रय नहीं कि बोधायनादि सूत्रों में यह वाक्य उन्हीं ऋषियों का है अथवा परम्परा में आने वाले उनके शिष्य प्रशिष्यों का ।
प्रश्न-ब्राह्मण तो स्वयं इतिहास और पुराण को अपन से पृथक् मानता है। फिर इतिहास और पुराण ब्राह्मणों की संज्ञा कैसे हो सकती है । देखो वात्स्यायन न्यायभाष्य में क्या कहता है
* १ । ३ । ११-१४ ।।
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