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उत्तर-आश्रलायन गृह्यसूत्र में इससे पूर्व ऋगादि चारों वेदों के साथ 'यद' शब्द पढ़ा है । वैसे ही “यद" शब्द "ब्राह्मणानि" पद के साथ भी पढ़ा है। अन्य इतिहास आदि के साथ “यद्" शब्द नहीं पढ़ा । इससे ज्ञात होता है कि सत्रकार की दृष्टि में इतिहासादि ब्राह्मणान्तर्गत बातों का नाम भी माना जाता था । इस लिंय इस स्थान में इतिहासादि को स्वतन्त्र न मानकर उन्हें ब्राह्मणों की संज्ञा बना दिया है ।
प्रश्न-ब्राह्मणों की इतिहासादि, संज्ञा में क्या कोई और भी प्रमाण है ।
उत्तर--हम पहले प्रकरण में लिख चुके हैं कि ब्राह्मण ग्रन्थों में ऋषियों वा अन्य जनों के नाम लेख पूर्वक उन के इतिहासादि कहे हैं। ब्राह्मणों में उतने ही नहीं, और भी सहस्रा ऐसे ही स्थल हैं । देखो
अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुः । मैत्रेयी च कात्यायनी च ।
शतपथ १४ । ७।३।१॥ तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ।
तैत्तिरीय ब्रा० ३ । ११ । ८ । १४ ॥ इत्यादि । इन वाक्यों का इतिहास से भिन्न अर्थ हो भी नहीं सकता। और निश्चय ही इन लोगों से पहले ये ग्रन्थ भी न थे । अतएव इतिहासादि युन होने से ही इन ब्राह्मणों की भी इतिहासादि संज्ञा अवश्य है।
प्रश्न-~-अनेक मन्त्रों में भी तो ऐसा ही इतिहास है। पुनः मन्त्रसंहिताओं की इतिहास संज्ञा क्यों नहीं मानते।
उत्तर--मन्त्रों में सामान्य इतिहास है । निनादि आर्ष शास्त्रों में जो बहुधा तत्रेतिहासमाचक्षते । २ । १० ॥ इत्यतिहासिकाः । २ । १६॥ ऐसा कहा गया है, तो इसका अभिप्राय भी नित्य सामान्य इतिहास से है । हां, कहीं २ मन्त्रार्थ में तो नहीं, पर मन्त्र के तत्त्व को स्पष्ट करने के लिए लौकिक इतिहास भी कहा गया है। मध्यम-कालीन साधारण भाष्यकारों ने इन लेखों का अभिप्राय न समझ कर वेदार्थ को दूषित किया है । मन्त्रों के पद यौगिक वा योगरूढ हैं। ऐसा ही सब वेदवित् मानते आये हैं | भगवान् जौमिनि कहते हैं
परं तु श्रुतिसामान्यमात्रम् । १।३१॥ अर्थात् मन्त्रान्तर्गत सब नाम सामान्य हैं , परन्तु ब्राह्मणादिकों में एसी बात
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