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गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । कामचारप्रवृत्तस्य न कार्य ब्रुवतो वचः ॥ १२ ॥* इससे स्पष्ट होता है कि पुरुषकृत श्लोकों को गाथा कहते हैं ।
काठक गृह्यसूत्र २५ । २३ ॥ तथा पारस्कर गृह्यसूत्र १ । ७ । २ ॥ से म्पष्ट होता है कि मन्त्रों को भी गाथा कहा गया है । ऐतरेय ब्रा० ६ । ३२ ॥ में आथर्वण २० । १२८ । १२० || आदि कुन्ताप ऋचाओं को गाथा कहा है।
अतएव हमारा कथन सब प्रमाणों से परिपुष्ट ही है।
प्रश्न—आश्वलायन श्रौतसूत्र का टीकाकार नारायण तो सब गाथाओं को ऋचा ही मानता है । आश्वलायन श्रौतसूत्र ५ । ६ ॥ में आई हुई एक यज्ञगाथा का वह इस प्रकार अर्थ करता है
गाथाशब्देन ब्राह्मणगता ऋच उच्यन्ते । यज्ञार्था गाथा यज्ञगाथा।
आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।३१॥ पर वृत्ति लिखते समय वह फिर कहता हैगाथा नाम ऋग्विशेषाः । क्या इन प्रकरणों में उसका ऐसा कथन सत्य है ?
उत्तर-जब नारायण टीका लिख रहा था, तो उसके हृदय में हमारे वाला सत्य पक्ष अवश्य उपस्थित हुआ होगा । उसी से भयभीत होकर ही उसने यह लिख दिया। जब ब्राह्मण स्वयं ऐसी गाथाओं को मानवी कहता है तो नारायण के कहने का कौन प्रमाण करेगा । नारायण वाली भूल ही सायण ने तैत्तिरीय आरण्यक २ । ९॥ के भाष्य में की है, जब वह "गाथाः मन्त्रविशेषाः" कहता है । यहाँ तो "यद् ब्राह्मणानि" कह कर शेष इतिहास, गाथा आदि को उनका विशेषण माना है । अतः मानवी गाथा ही अभिप्रेत हैं |
प्रश्न---इस पूर्वोक्त “यद ब्राह्मणानि" वाक्य के संज्ञासंज्ञिभाव-युक्त अर्थ करने में क्या प्रमाण है।
* वङ्गशाखा, अध्याय २२ ॥ पाठान्तर-कामकार० । पञ्चतन्त्र, पूर्णभद्र के पाठ में यह श्लोक ऐसे हैगुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शासनम् ॥१।१६९ ॥ यही लोक महाभारत में कुछ पाठान्तर से आया है।
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