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तत्र ब्रह्मेतिहासामिश्रमृमिश्रं गाथामिश्रं भवति ।
यहां कहा है कि वेद में इतिहास और गाथा आदि मिश्रित हैं। इस से क्या यह सिद्ध नहीं होता कि वेद भी मनु-य-राचत है, तथा वंद और ब्राह्मण में कोई भेद नहीं।
उत्तर--नहीं, इस से यह सिद्ध नहीं होता । यहां “तत्र" पद के साथ निरुत्तस्थ पूर्व वाक्य से “सून." पद का अनुवृत्ति आती है । इसका अभिप्राय यह है कि ऋग्वेद के “उस सूक्त (१ । १. 1) में ब्रह्म अर्थात् वेद में ही कुछ मन्त्र ऐसे हैं, जो नित्य इतिहास को कहते हैं, और कुछ मन्त्र ऐसे हैं जिन की पारिभाषिकी संज्ञा गाथा है । गाथा उन्हें इस लिये कहते हैं कि गाथारूप में आलङ्कारिक तौर पर उन में कुछ तथ्यों का वर्णन है।
प्रश्न- या तो गाथाएं लौकिक हो सकती है, या बंद की ऋचाओं को ही गाथा कहा जा सकता है । हम गाथा को दोनों प्रकार का कैसे मान सकते हैं ।
उत्तर—जैसे श्लोक शब्द साधारण श्लोक के लिये भी प्रयुक्त होता है, और वेदमन्त्रों के लिये भी प्रयुक्त हो जाता है, वैसे ही गाथा शब्द का भी द्वयर्थक प्रयोग है । शतपथ ब्रा० १४ । ७ । २ । ११, १२, १३ ॥ में निम्नलिखित याजुष मन्त्र को श्लोक कहा गया है--
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्या रताः ॥४०।९।।
और साधारण श्लोकों को भी शतपथ में ही श्लोक कहा गया है, ऐसा हम पृष्ठ ३२ पर लिख चुके हैं।
गाथाएं लौकिक है, इसका ब्राह्मणान्तर्गत प्रमाण हम पहले कह आए हैं । अब दूसरे आचार्यों के प्रमाण सुनो । याज्ञवल्क्यस्मृति का टीकाकार आचार्य विश्वरूप १ । ४५ ॥ श्लोक पर लिखता है
'नाराशंस्यः पौरुषेय्यो यज्ञगाथाः । गाथा आत्मवादश्लोकाः । पुरुषकृत एव गाथा इत्यन्ये ।' मेधातिथि मनु ९ । ४२ ॥ पर लिखता हैगाथाशब्दो वृत्तविशेषवचनः। परम्परागताः श्लोकाः॥ वाल्मीकि रामायण पश्चिमोत्तर शाखा अयोध्याकाण्ड अध्याय २५ में कहा हैअपि चेयं पुरागीता गाथा सर्वत्र विश्रुता । मनुना मानवेन्द्रेण तां श्रुत्वा मे वचः कुरु ॥११॥
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