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कहा गया है कि अमुक यश में बैठ कर गाथा के उत्तर में ' तथा ' कहे । यहाँ ' तथा ' मानुष हैं, यह स्वयं ब्राह्मण में स्वीकार किया गया है । ऋचः के प्रतिपक्ष में गाथा का उल्लेख स्पष्ट करता है कि जहां ऋचा देवी = ईश्वरीय है, वहां गाथा मनुष्यक्ति है । शतपथ ब्रा कहता है कि मनुष्य अनृतरूप हैं, और काठक संहिता ने कहा है कि गाथा और नाराशंसी भी अनृत हैं, अर्थात् मानवीय हैं ।
पृष्ठ ८ पंक्ति ५ में हम ने जो प्रतिज्ञा की थी पूर्वोक्त प्रमाणों से वह सिद्ध हो गई, अर्थात् गाथाएं पौरुषेय हैं । यही पौरुषेय गाथाएं ब्राह्मण-ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर उद्धृत की गई हैं । देखा-
शतपथ १३ | ५ | ४ | २, ३, ६, ७, ९, ११ ॥ इत्यादि ।
ये गाथाएं सर्वथैव लौकिक भाषा में ही हैं। जिन प्रन्थों में लौकिक भाषा वाली पौरुषेय गाथाएं पाई जावें और पाई हो न जाएं किन्तु उद्धृत की गई हों, वे ग्रन्थ वेद अर्थात् ईश्वरीय नहीं हो सकते । ब्राह्मण-ग्रन्थों में यह पाई जाती हैं, अतएव ब्राह्मणग्रन्थ वेद नहीं । यदि ब्राह्मण-मन्थों को वेद मानागे, तो ब्राह्मणोद्धृत “अनृत” गाथाएं ईश्वरकृत माननी पड़ेगी । यह ब्राह्मण के ही विरुद्ध है । ब्राह्मण तो गाथाओं को मनुयकृत कह रहा है, फिर ब्राह्मण को वेद मानना अपने ही अज्ञान का प्रकाश करना है। (ङ) तैत्तिरीय ब्राह्मण १ । ३ । २ । ६ ॥ में कहा है
यद् ब्रह्मणः शमलमासीत् सा गाथा नाराशस्यभवत् । अर्थ — जो वेद का मल था वह गाथा, नाराशंसी बन गया ।
इस हीनोपमा से भी गाथा, नाराशंसी आदि को ब्रह्म अर्थात् वेद के तुल्य नहीं माना गया ।
(च) तैत्तिरीयारण्यक २९ ॥ और आश्वलायनगृह्यसूत्र ३ । ३ । १-३ ॥ में क्रमश: कहा हैं
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणनि कल्पान् गाथा नाराशंसीः । यद् ब्राह्मणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरितिहासपुराणानीति ।।
यहां इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी को ब्राह्मणों का विशेषण माना | त्राह्मणपद संझी और इतिहासादि उसकी संज्ञा हैं । इस वाक्य से यही प्रतीत है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राचीन इतिहासों, पुराणों (जगदुत्पत्ति सम्बन्धी बातों), कल्पों, गाथाओं और नाराशंसी आदि का ही संग्रह है । ये कल्प आदि भी मनुष्य प्रणीत ही थे, अतः ब्राह्मण-ग्रन्थ जो उनका संग्रहमात्र हैं, ईश्वरोत नहीं हो सकते ।
प्रश्न - निरुक्त अध्याय ४, खण्ड ६ में कहा है
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