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अविद्वान् ही न था, तो पुनः विद्या सम्बन्धी ग्रन्थों का क्या कहना । अतः ऐसा प्रश्न निरर्थक है।
प्रश्न-इन ब्राह्मणों की भाषा वदों के बहुत समीप है। अतः प्राह्मणों से पहले लौकक भाषा में ग्रन्थों का होना एक असम्भव बात है।
उत्तर—यह भी तुम्हारे मिथ्या भ्रम का ही कारण है। पश्चिम के कुछ विद्वानों के दर्शाये हुए असत्य-भाषा विज्ञान (Philology) को सत्य मानकर पढ़ने से ही ऐसे सारहांन प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं । लो इसका उत्तर सुनो । ब्राह्मणग्रन्थों में अनेकों ऐसी गाथायं और श्लोक हैं. जो सर्वथा लोकभाषा में हैं । उसके कुछ उदाहरण देखो
तदेष श्लोकोऽभ्युक्तःतद्वै स प्राणोऽभवन् महाभूत्वा प्रजापतिः । भुजो भुजिष्या वित्वैतद् यत् प्राणान् प्राणयत् पुरि ।।
शतपथ ७ । ५। १ । २१ ॥ तदेष श्लोको भवतिअन्तरं मृत्योरमृतं मृत्यावमृतमाहितम् ।। मृत्युर्विवस्वन्तं वस्ते मृत्योरात्मा विवस्वति ।।
शतपथ १० ।५।२।४॥ तथा अन्य श्लोकों के लिये देखो शतपथ
१० | ५ | २ | १८ ॥ १० । ५। ४ | १६ ॥ ११ । ३ । १। ५, ६ ॥ ११ । ५। ४ । १२ ॥ ११ । ५ । ५ । १२ ॥ १२ । ३ । २ । ७, ८ ॥ इत्यादि तेरहवें और चौदहवे काण्ड में भी बहुत से श्लोक हैं | गाथाओं के कुछ उदाहरण हम पृष्ठ ६-७ पर देचुके हैं । ऐसे ही अन्य ब्राह्मणों में भी श्लोक आदि पाये जाते हैं । ये सब श्लोक वा गाथाएं भाषा अर्थात् लोकभाषा में ही हैं । और ऊपर भी हम बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि नाम के जो ग्रन्थ गिना चुके हैं, वे भी सब लोकभाषा में ही हैं । इस से ज्ञात होता है कि प्रवचन की भाषा के साथ ही साथ, लोकभाषा भी सदा से विद्यमान रही है। अधिक विचार करने पर विद्वान् लोग स्वयं इसी विचार पर पहुंच जावेंगे |
___* इस अर्थशास्त्र के कई लम्ब २ उद्धरण विश्वरूपाचार्य प्रणीत याज्ञवल्क्यस्मृति की बालक्रीडा टीका में पाये जाते हैं।
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