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इस प्रकार जब मामासा सूत्रों का भाष्यकार ही इतना पुराना है, तो मूल सूत्र क्यों नवीन होंगे? हम पाणिाने को कलियुग की लग भग दूसरी शताब्दी में मानते हैं।*
पाश्चात्य लेखक विक्रम से चार शताब्दी पहले मानते हैं । अतः पाश्चात्यों के अनुसार भी जैमिनि सूत्र विक्रम की पांचवीं शताब्दी से पहले होना चाहिये । इस से यह स्पष्ट होगया कि कीथ का लेख भ्रमपूर्ण है और व्यास शिष्य जैमिनि ही मीमांसा मूत्र का कर्ता वा तलवकार ब्राह्मण का प्रवना है ! इस लिये दो तलवकारादि ब्राह्मण महाभारत कालीन हैं।
(ज) छान्दोग्य उपनिषद्, छान्दोग्य-ताण्ड्य ब्राह्मण का अन्तिम भाग ही है । छान्दोग्य-उपनिषद् ३ | १६ । ६ ॥ में कहा है
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानाह महिदास ऐतरेयः ।...... । स ह षोडशे वर्षशतमजीवत् ।
यही महिदास ऐतरेय, ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता है । आश्वलायन गृह्य सूत्र ३ । ४ । ४ ॥ में भी इसी का उल्लेख है ।। महिदास ऐतरेय व्यास और शौनक तथा आश्वलायन के बीच में आता है । पाणिनीय सूत्र---
शौनकादिभ्यश्छन्दसि ॥ ४ । ३ । १०६ ॥ से हम जानते हैं कि शौनक किसी शाखा वा ब्राह्मण का प्रवचनकर्ता है । सम्भवतः
* प्रश्न-पाटलिपुत्र बहुत पुराना नगर नहीं है । इस महाराज अजातशत्रु (विक्रम से लगभग ५०० वर्ष पूर्व ) ने बसाया था । जब यह नगर ही बहुत पुराना नहीं, तो उसमें परीक्षा देने वाले शास्त्रकार पाणिनि आदि कैसे कलियुग की दूसरी शताब्दी में हो सकते हैं ?
उत्तर-यथापे पाटलिपुत्र नवीन नगर है, तथापि मगध देश में इससे पहले गिरिव्रज राजधानी थी । गिरिव्रज के सम्राट ही पहले शास्त्रकारों की परीक्षा कराया करते थे । राजशेखर के काल में पाटलिपुत्र नाम प्रसिद्ध हो चुका था, अतः उस ने यही लिख दिया । राजशेखर का वास्तविक अभिप्राय सम्राट् से है, नगर से नहीं, यह उसके पूर्वापर प्रकरण को देखने से स्पष्ट हो जाता है।
। पूर्वोत ( पृ० १९ ) वाक्य में कीथ साहेब आश्वलायन गृह्यसूत्र की इन सूचियों को प्रक्षिप्त सा मानते हैं । ऐतरेय आरण्यक पृ० १७ ( सन् १९०९ ) के प्रथम टिप्पण में भी वे इन सूचियों को “सम्भवतः नया" मानते हैं। स्वप्रयोजन सिद्ध होता न देख कर ही, वे ऐसा मानने पर बाधित हुए हैं, अन्यथा इन वाक्यों के अन्यान्तर्गत होने में कई सन्देह नहीं ।
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