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सिचंत-सिणिद्ध पाइअसहमहण्णवो
६०१ सिञ्चंत देखो सिंच = सिच् ।
सिद्ध वि [श्रेष्ट] अति उत्तम (उप ८७६) । सिढिलीभूय वि [शिथिलीभूत] शिथिल सिच्चमाण)
सिट्ठ वि [सृष्ट] १ रचित, निर्मित (उप बना हुआ (पउम ५३, २४)। सिच्छा स्त्री [ स्वेच्छा] स्वच्छन्द (सुपा
___७२८ टी; रंभा) । २ युक्त । ३ निश्चित । ४ सिण देखो सण = शण (जी १०, सुपा १८६)
भूषित । ५ बहुल, प्रचुर । ६ त्यक्त (हे १, गा ७६८) सिज प्रक [स्विद् ] पसीना होना । सिज्जइ
१२८)
सिणगार देखो सिंगार = शृङ्गार, सिणगार(षड् २०३)। वकृ. सिज्जत (नाट-उत्तर
सिद्ध वि [शिष्ट] १ कथित, उक्त, उपदिष्ट चारुवेसो' (संबोध ४७); 'कारिप्रसुरसुंदरिसि
(सुर १,१६५, २, १८४ जी ५०; वजा गारं' (सिरि १५८)सिज देखो सिज्जा (सम्मत्त १७०)
१३६)। २ सजन, भलामानस, प्रतिष्ठित सिगा अकस्निा सिजंभण पुं [शय्यंभण] एक सुप्रसिद्ध
स्नान करना, नहाना । (उप ७६८ टी; कुप्र ६४; सिरि ४५; सुपा प्राचीन जैन महर्षि (कप्प-पृ ७८; दि)।
सिणाइ (सूम १, ७, २१; प्राकृ २८) ।
४७०) यार पुं [चार] भलमनसी, सिन्नंस देखो सेज्जंस = श्रेयांस (कप्पः पडि;
संकृ. सिणाइत्ता (सूत्र २, ७, १७)। ईक. सदाचार (धर्म १)।आचा २, १५, ३)
सिणाइत्तए (प्रौप)। सिह विदे] सो कर उठा हुअा (षड् ) सिज्जा स्त्री [शय्या] १ बिछौना (सम १५
सिणाउ पुंस्त्री [स्नायु] नाडी-विशेष, वायु उवा; सुपा ५५३)। २ उपाश्रय, वसति
सिद्धि स्त्री [सृष्टि] १ विश्व-निर्माण, जगद्- वहन करनेवाली नाड़ी (प्राक २८)। (मोघ १६७) तरी, यर। स्त्री ["तरी] रचना (सुपा १११; महा)। २ निर्माण,
सिणाण उ [स्नान] नहान, अवगाहन (नम उपाश्रय की मालकिन (ोघ १६७; पि रचना। ३ स्वभाव । ४ जिसका निर्माण
३५; ओघ ४६६, रयण १४)।१०१)। वाली स्त्री [पाली] बिछौना का होता हो वह (हे १, १२८)। ५ सीधा क्रम,
सिणात देखो सिणाय = स्नात (ठा ४,१काम करनेवाली दासी (सुपा ६४१)। देखो प्रविपरीत क्रम 'चकाई जंतजोगेणं सिद्धि
पत्र १६३५, ३-पत्र ३३६) सेन्जा विसिट्टिकमेणं एगंतरियं भर्मताई' (सिरि
सिणाय देखो सिणा । सिणायंति (दस ६, सिजिअ (अप) वि [सृष्ट] उत्पन्न किया हुआ, ८७८)।
६३) । वकृ. सिणायंत (दस ६, ६२; पि बनाया हुआ (पिंग)
सिट्टि [दे. श्रेष्ठिन] नगर-सेठ, नगर का सिज्जिर वि [स्वेत्तु] जिसको पसीना हुआ
मुख्य साहूकार, महाजन (कप्प, सुपा ५८०)
सिणाय) वि स्निात, क] १ प्रधान, करता हो वह, पसीनावाला (गा ४०७; ।
- पय न [पद] नगर-सेठ की पदवी (सुपा सिणायग श्रेष्ठ (सूम २, २, ५६) । २ ४०८, ७७४: कुमा)। स्त्री. री (हे ४,२२४) ३४२) । देखो सेट्ठि
सिणायय) मुनि-विशेष, केवलज्ञान प्राप्त सिज्जूर न [दे] राज्य (दे८, ३०)- सिट्टिणी स्त्रीश्रेष्ठिनो] श्रेष्ठि-पत्नी, सेठानी मुनि, केवली भगवान् (भग २५, ६; एंदि सिज्म अक [सिध] १ निष्पन्न होना, (सुपा १२)।
। १३८ टी; ठा ३, २-पत्र १२६%3; धर्मसं बनना । २ पकना। ३ मुक्त होना । ४ मंगल सिढी स्त्री [दे] सीढ़ी, निःश्रेरिण (अज्झ ।
। १३५८; उत्त २५, ३४)। ३ बुद्ध शिष्य, होना । ५ सक. गति करना, जाना । ६ शासन ७०)।
। बोधि सत्त्व (सूम २, ६, २६)। करना । सिज्झइ (हे ४, २१७; भग; महा) सिढिल वि [शिथिर, शिथिल] १ श्वथ,
सिगाव सक [स्नपय ] स्नान कराना। सिझंति (कप्प)। भूका, सिभिंसु (भग ढोला । २ महढ़, जो मजबूत न हो वह ।
सिणावेदि (शौ) (नाट-चैत ४४) । पि ५१६)। भवि सिज्झिहिइ, सिज्झिस्संति, - ३ मन्द (हे १, २१५, २५४; प्राप; कुमा)
सिरणावंति, सिणावेंति (प्राचा २, २, ३, सिभिहिति, सिज्झिही (उवाः भगः पि प्रासू १०२ गउड)।
१०; पि १३३)।५२७; महा)। वकु.सिझंत (पिंड २५१) सिदिल सक शिथिलय 1 शिथिल करना।
सिणि स्त्री [सृणि] अंकुश (सुपा ५३७; सिरि सिज्म देखो सिंझ (राज)। सिढिलेइ, सिढिलंति, सिढिलेंति (उवः वजा
१०५८) । सिझणया । स्त्री [सेधना] १ सिद्धि, मुक्ति,
सिणिज्म अक [स्निह ] प्रीति करना।
१० से ६ ६५) सढिलेहि (वेणी २४३; सिज्मणा मोक्ष, निर्वाण (सम १४७; । पि ४६८) । वकृ. सिढिलेत (से ५, ४२)
सिरिणज्झइ (प्राक २४)। कर्म. सिप्पइ (हे उप १३१,७६६, पव ५८, धमवि १५१
४, २५५) । कवकृ. सिप्पंत (कुमा ७, सिढिलावि वि [शिथिलित] शिथिल विसे ३०३७)। २ निष्पत्ति, साधना;
६०) 'सब्बो परोवयारं करेइ कराया हुमा (प्राकृ ६१)
सिणिद्ध वि [स्निग्ध] १ प्रीति-युक्त, स्नेहनियकजसिज्झणाभिरनो। सिढिलिअ वि [शिथिलित] शिथिल किया
युक्त (स्वप्न ५३; प्रासू ६२)। २ भाद्र', निरविक्खो नियकज्जे हुमा (कुमाः गउड; भवि) ।
रस-युक्त (कुमा)। ३ मसूण, कोमल । ४ परोवयारी हवइ धन्नो॥ सिढिलीकय वि [शिथिलीकृत] शिथिल चिकना । ५ न. भात का माँड़ (हे २, १०९ (रयण ४६) किया हुआ (सुर २, १६, १७३) ।
प्राप्र)
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