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८४८ पाइअसद्दमहण्णको
संबल-संभव संबल पुन [शम्बल] १ पाथेय, रास्ते में स ४८६; सूत्र १, २, १, १; वै ७३)। संभणिअ वि [संभणित] कथित, उक्त
खाने का भोजन; 'धन्नाणं चिय परलोयसंबलो | वकृ. संबुज्झमाण (प्राचा १, १, २, ५) (पिंग)। मिलइ नन्नाणं' (सम्मत्त १५७; पान; सुर संबुद्ध वि [संबुद्ध] ज्ञान-प्राप्त (उवाः महा) संभम सक [सं + भ्रम्] १ अतिशय १६, ५०; दे ६, १०८ महा; भवि; सुपा संबुद्धि स्त्री [संबुद्धि ज्ञान, बोध (अज्झ
भ्रमण करना। २ अक. भय-भीत होना, १४)। २ एक नागकुमार देव (भावम)।
घबड़ाना । वकृ. संभमंत (पि २७५) संबलि देखो सिंबलि = शिम्बलि (आचा २,
संभम [संभ्रम] १ प्रादरः 'संभमो मायरो १, १०, ४)। संबूअ [शम्बूक] जल-शुक्ति, शुक्ति के
पयत्तो य' (पान) । २ भय, घबराहट, क्षोभः
आकार का जल-जंतु-विशेष (दे ८, १६; संबलि पुंस्त्री [शाल्मलि] वृक्ष-विशेष, सेमल
'संखोहो संभमो तासो' (पान; प्रासू १०५ गउड) का पेड़ (सुर २, २३४ ८, ५७)। देखो
महा)। ३ उत्सुकता (प्रौप)।सिंबलि। संबोधि स्त्री [संबोधि] सत्य धर्म की प्राप्तिान
संभर सक [सं+ भृ] १ धारण करना। संवाधा देखो संबाहा (पउम २, ८६)। (धर्मसं १३६६)
२ पोषण करना । ३ संक्षेप करना, संकोच संबाह सक [सं+ बाध्] १ पौड़ा करना। संबोह सक[सं+बोधय ] १ समझाना, करना। वकृ. संभरमाण (से ७, ४१)। २ दबाना, चप्पी करना। संबाहज्जा
बुझाना। २ आमन्त्रण करना। ३ विज्ञप्ति | संकृ. संभार (अप) (पिंग)। (निचू ३)।
करना । संबोहइ, संबोहेइ ( भविः महा)। संभर सक [सं + स्मृ] स्मरण करना, याद संबाह पुं[संबाध] १ नगर-विशेष, जहाँ
कवकृ. संबोहिन्जमाण (णाया १, १४)। करना । संभरेइ, संभरिमो (महा पि ४५५) । ब्राह्मण आदि चारों वर्षों की प्रभूत वस्ती
कृ. संबोहेअव्व (ठा ४, ३–पत्र २४३)। वकृ. संभरंत, संभरमाण (गा २६; सुपा हो वह शहर (उत्त ३०, १६)। २ पीड़ा | संबोह पुं[संबोध] ज्ञान, बोध, समझ
३१७; से ७, ४१) । कृ. संभरणिज्ज, 'संबाहा बहवे भुज्जो दुरइक्कमा अजाणो (मात्म २०)।
संभरणीय (धम्मो १८; उप ५३८ टो)। अपासो' (प्राचा)। ३ वि. संकीर्ण, सकरा
संबोहण न [संबोधन] १ ऊपर देखो (विसे | संभरण न [संस्मरण] स्मरण, याद (गा 'संबाहं संकिरणं' (पान)।
२३३२, सुख १०, १; चेइय ७७५)। २ २२२ रणाया १, १-पत्र ७१, दे ७, २५; संबाहण न [संबाधन] देखो संवाहण आमन्त्रण (गउड)। ३ विज्ञप्ति (णाया १, उवकु १४) । (पाचा १, ६, ४, २)।
८-पत्र १५१)।
संभरणा स्त्री [संस्मरणा] ऊपर देखो (उप संबाहणा स्त्री [संबाधना] देखो संवाहणा संबोहि देखो संबोधि (उप पृ १७६, वै ७३)।
५३०टी) (प्रौप)।
संभराविअ वि [संस्मारित] याद कराया संबोहिअ वि[संबोधित] १ समझाया हुमा संबाहणी स्त्री [संबाधनी] विद्या-विशेष |
। हुआ (दे ८, २५; कुप्र ४२१)।
(यति ४८) । २ विज्ञापित (णाया १,८(पउम ७, १३७)।
संभरिअ वि [संस्मृत] याद किया हुआ पत्र १५१)।
(गउड; काप्र ८६२) संबाहा स्त्री [संबाधा] १ पीड़ा (प्राचा १,
संभंत वि [संभ्रान्त] १ भीत, घबड़ाया संभल सक [सं+ स्मृ] याद करना। ५, ४, २) । २ अंग-मदन, चप्पी (निचू ३)।
हमा, त्रस्त (उत्त १८, ७, महा; गउड)। संभलइ (उप पृ ११३)। कर्म, संभलिज्जइ संबाहिय वि [संबाधित] १ पीड़ित (सूम २ पुंन. प्रथम नरक का पांचवाँ नरकेन्द्रक- (वज्जा ८०)। वकृ. संभलि (अप) (पिंग १, ५, २, १८)। २ देखो संवाहिय नरकस्थान-विशेष (देवेन्द्र ४) । ३ न. भय,
२६७) (ौप)। घबराहट (महा)।
संभल सक [सं+भल ] १ सुनना संबुक्क शम्बूक] १ शंख (ठा ४, २संभंति स्त्री [संभ्रान्ति] संभ्रम, उत्सुकता
गुजराती में 'सांभळवु" । २ प्रक. सम्भलना, पत्र २१६; सुपा ५० १६५)। २ रावण (भग १६, ५-पत्र ७०६)।
सावधान होना। संभलइ (भवि); 'संभलसु का एक भागिनेय-खरदूषण का पुत्र (पउम
मह पइन्न' (सम्मत्त २१७) । संकृ. संभलि ४३, १८)। ३ एक गाँव का नाम (राज)। संभंतिय वि [सांभ्रान्तिक] संभ्रम से बना
(अप) (पिंग २८६) विट्टा स्त्री [विर्ता] शंख के प्रावतं के हुआ (भग १६, ५-पत्र ७०६)।
संभली स्त्री [दे. संभली] १ दूती (दे ८,६ समान भिक्षा-चर्या (उत्त ३०, १९)। देखो संभग्ग वि [संभग्न] चूणित (उत्त १६, वव ५) : २ कुट्टनी, पर-पुरुष के साथ अन्य संबूअ।।
स्त्री का योग करानेवाली स्त्री (कुमा)। संबुज्झ सक [सं + बुध् ] समझना, ज्ञान संभण सक [सं + भण् ] कहना। संकृ. संभव अक [सं + भू] १ उत्पन्न होना। पाना । संबुज्झइ, संबुज्झति, संबुज्झह (महाः संभणिअ (पिंग)।
| संभावना होना, उत्कट संशय होना। संभवइ
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