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संभव - संभोग
(पि ४७५; काल; भवि ) । वकु. संभवंत (सुपा ५६ ) । कृ. संभव्व (श्रा १२ सूत्रनि ex)
संभव [संभव] १ उत्पत्ति (महा; प है ४, ३१५) । २ संभावना (भवि ) । ३ वर्तमान
सर्पिणी काल में उत्पन्न तीसरे जिनदेव का नाम (सम ४३; पडि ) । ३ एक जैन मुनि जो दूसरे वासुदेव के पूर्व जन्म के गुरु थे (पउम २३, १७६) । ५ कला-विशेष ( औौप ) 1संभव [दे] प्रसव जरा, प्रसूति से होनेवाला बुढ़ापा (दे ८, ४) । संभव (अप) देखो संभम = संभ्रम (भवि) 1 संभवि वि [ संभविन् ] जिसका सम्भव हो वह (पंच ५, २५; भास ३५) । संभविय रेल संभू (इव १५६) । संभव्व देखो संभव = सं + भू संभाणव[संभाणs] गुजरात का एक प्राचीन नगर (राज)।
संभाल पुं [संभाल] खोज, प्रन्वेषण; 'उदिए सूरम्मि जान जरगरगोए पायपणामनिमित्तं समागमो ताव संभालो जामो तस्स, न कत्यवि जाव पत्ती कहूंचि ज्वलद्धा' (उप २२० टी)
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पाइअसद्द महणवो
संभालिय वि [संभालित ] संभाला हुआ (सरण) ।
संभाव सक[सं+ भावर ] १ संभावना करना। २ प्रसन्न नजर से देखना 'न संभावसि अवरोह (मोह ६) संभावेि ( संवेग ४ ), सम्भावेहि मोह २६ ) | कर्म. संभावीदि (शौ) (नाट मुख २.० ) । वकृ. संभावअंत (नाट - शकु १३४) । संकृ. संभाविअ ( नाट— शत्रु ६७ ) । कृ. संभावणिज्ज, संभावणीय (उप ७६८ टी स. ६१; श्रा२३) ।
संभार सक [ सं + भारय ] मसाला से संस्कृत करना. बासित करना । संधारे, संभा
रॅति, संभारेह ( खाया १, १२ -- पत्र १७५; १०६) संभारिय (पिंड १२३) । कृ. संभारणिज्ज (गाया १, १२) । संभार [संभार] समूह 'ग थंभसंभारभासमाणं करावए राया' (उप ६४८ टी; श्रावक १३० ) । २ मसाला, शाक श्रादि में ऊपर डाला जाता मसाला (गाया १, १६ - पत्र १९६ ) । ३ परिग्रह, द्रव्य-संचय ( परह १, ५ - पत्र २ ) । ४ अवश्यतया कर्म का वेदन (सू २, ७, ११) । - संभारि वि[संस्मृत] याद किया हुआ (से संभासिय वि[संभाषित ] जिसके साथ १४, ६५) । संभाषणातला किया गया हो वह (महा) 1
संभारिअ वि[संस्मारित] याद कराया हुआ (छाया १, १ – पत्र ७१ सुर १४, २३५) । संभाल सक [ सं + भालय् ] संभालना । संभाल (भवि ) ।
2
४ बिल
संभिडण न [संभेदन] प्राघात ( गउड) संभिष्ण वि[संभिन्न] १ परिपूर्ण पक्ष } संभिन्न १०) २ चि कम ( देवेन्द्र ३४२ ) । ३ व्याप्त । कुल भिन्न -- भेदवाला ( परह २, १ - पत्र १९) । ५ खंडित (दरा १, १३) सोअ [["ओस ] धि विशेषवाला, शरीर के कोई भी अंग से शब्द को स्पष्ट रूप
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संभाव अक [ लुभ् ] लोभ करना, श्रासक्ति करना । संभावइ ( हे ४, १५३३ बड् ) । संभावणा ी [संभावना ] संभव (से ८, १६;
गउड) V
संभावि वि [संभाविन् ] जिसका संभव हो वह (श्रा १४) । -
संभावि वि [संभावित ] जिसकी संभावना की गई हो वह (नाटविक ३४ ) - बातचीत
संभास सक[सं+भाष] बीत करता श्रालाप करना। कृ. संभागीय (सुवा
११५) ।
संभास
[संभाष] संभाषण, वार्तालाप ( उप पृ ११२० संबोध २१३ सरण; काल बुपा ११५ २४२)
संभाषण न [ संभाषण ] ऊपर देखो (भवि ) | M संभासा स्त्री [संभाषा ] संभाषण, बातचीत (औप ) 1
संमासि वि [संभाष] संभाषण, 'संभासिसारिहों (काल) 1
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८४९ से सुनने की शक्तिवाला ( परह २ १ - - पत्र
EE; प
संभिन्न न [[ ] श्राघात (गउड ६३४ टी ) । संभिय वि [संभृत] १ पुट, 'आरंभसंभिय (सूत्र १, ६, ३) । २ संस्कार-युक्त, संस्कृत; 'बहुसंभारसं भिए' (गाया १, १६ – पत्र १९६६ स ६८: विसे २९३ ) 1
संभु पुं [ शम्भु ] शिव, शंकर (सुपा २४०; साधं १३५; समु १५ ) । २ रावण का एक सुभट ( पउम ५६, २) । ३ छन्द - विशेष (पिंग) श्री [गृदिणः] गौरी,
(४४२)।
संभुंज सक [ सं + भुज् ] साथ भोजन करना, एक मण्डली में बैठकर भोजन करना । संभुंजइ ( कस) । हेकु. संगुंजित्तए (सूत्र २, ७, १६; ठा २, १ --पत्र ५६) । संभुंजणा स्त्री [संभोजना ] एकत्र भोजनव्यवहार (पं)।
दुर्जन, खल
संभुवि [] (७)। संभूअ वि [संभूत] १ उत्पन्न, संजात (सुपा ४० ५०७ महा) । २. एक जैन मुनि जो प्रथम वासुदेव के पूर्वजन्म में गुरु थे (सम १५३, पउम २०, १७६ ) । ३ एक प्रसिद्ध जैन महर्षि जो स्थूलभद्र मुनि के गुरु थे (धर्मवि ३८६ सार्धं १३ ) । ४ व्यक्ति वाचक नाम (महा) विजय ["विजय ] एक जैन महर्षि (कुप्र ४५३ विपा २, ५ ) 1 संभू श्री [संभूति] उत्पति (पउम १७ ६८ मा ६५४ सुर ११, १३५ प २४४) । २ श्रेष्ठ विभूति (साथै १३ ) - संभूस सक [ सं + भूप् ] अलंकृत करना । संभूसइ (सरण) ।
संभोज [संभोग] सुन्दर भोग (सुपा ४९८ कप्पू) | देखो संभोग संभोइस वि[सांभोगि] समान सामाचारीक्रियानुष्ठान होने के कारण जिसके साथ खानपान आदि का व्यवहार हो सके ऐसा साधु ( घोघभा २०३ पंचा ५, ४१; ५०) संभोग [संभोग ] समान सामाचारीवाले साधुत्रों का एकत्र भोजनादि व्यवहार ( सम २१ प स
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