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१४ पाइअसद्दमहण्गवो
अक्ख-अक्खितर चन्दनक, समुद्र में होनेवाला एक द्वीन्द्रिय २ शाम, संध्या काल (दे १, ५६)। अक्खा स्त्री [आख्या] नाम (विसे जन्तु, जिसके निर्जीव शरीर को जैन साधु अक्खणिआ स्त्री [दे] विपरीत मैथुन १६११)। लोग स्थापनाचार्य में रखते हैं (श्रा १)। (पास)।
अक्खाइ वि [आख्यायिन् ] कहनेवाला, ४ पहिया की धुरी, कोल (ोध ५४६)।५ अक्खम वि [अक्षम १ असमर्थ (सुपा- उपदेशक: 'अधम्मक्खाई' (गया १, १८ चौसर का पासा (धरण ३२)। ६ बिभीतक,
३७०) । २ अयुक्त, अनुचित (ठा ३, ३)। विपा १,१)। बहेड़ा का वृक्ष (से ६, ४४) । ७ चार हाथ अक्खय वि अक्षत] १ घावरहित, व्रण शून्य
अक्खाय न [आख्यातिक क्रियापद, क्रियाया ६६ अंगुलों का एक मान (अणुः | (सुर २, ३३) । २ अखण्डित, संपूर्ण (सुर
वाचक शब्द (विसे)। सम)। ८ रुद्राक्ष (अणु ३)। ६ न. इन्द्रिय | ६, १११)। ३ पुं. ब. अखण्ड चावल
अक्खाइय वि [अक्षितिक स्थायी, अनश्वर, (विसे ६१ ; धरण ३२)। १० द्यूत, जूआ (सुपा ३२६)।
शाश्वत एवं ते अलियवयणदच्छा परदोसुप्पाय(से ९, ४४)। चम्म न [°चमैन] पखाल,
एपसत्ता वेडंति अक्खाइयबीएण अप्पारणं यार वि [चार] निर्दोष आचरणवाला मसक; 'अक्खचम्म उट्ठगंडदेस' (गाया १,
कम्मबंधणेण' (पण्ह १, २)। (वव ३)। ६) । पाडय न [पादक कील का टुकड़ा,
अक्खाइया स्त्री [आख्यायिका] उपन्यास, | अक्खय वि [अक्षय] १ क्षय का प्रभाव 'राइणा हाहारवं करेमाणेण पहनो सो
वार्ता, कहानी (कप्पू ; भास ५०)। (उवर ८३) । २ जिसका कभी नाश न हो सुरणपो अक्खपाडएणंति' (स २५५) । माला
अक्खाउ वि [आख्यात] कहनेवाला (सूत्र वह (सम १)। स्त्री [ माला जपमाला (पउम ६६, ३१) ।
"निहि पुन [निधि] एक प्रकार की 'लया स्त्री [लता] रुद्राक्ष की माला (दे)।
अक्खाग पुं[आख्याक म्लेच्छों की एक तपश्चर्या (पव २७१) । तइया स्त्री 'वत्त न [पात्र] पूजा का पात्र, 'तो
जाति (सूत्र १, ५)। [तृतीया] वैशाख शुक्ल तृतीया (प्रानि)। लोप्रो। गहियक्खबत्तहत्थो एइ गिहे...."
अक्खाड़गपुं [अक्षवाटक] १ जूमा अक्खर पुंन [अक्षर] १ अक्षर, वर्ण (सुपा ...."वद्धावरणत्थं' (सुपा ५८५) । वलय
अक्खाडय ) खेलने का अड्डा । २ अखाड़ा, न [°वलय रुदाक्ष की माला (दे २,८१) । ६५६) । २ ज्ञान, चेतना: 'नक्खरइ अणुव
व्यायाम-स्थान (उप पृ १३०)। ३ प्रेक्षकों वाअ पु[पाद] नैयायिक मत के प्रवर्तक प्रोगेवि, अक्खरं, सो य चेयणाभावो' (विसे
को बैठने का आसन (ठा ४, २) । गौतम ऋषि (विसे १५०८)। वाडग पुं ४५५)। ३ वि. अविनश्वर, नित्य (विसे
अक्खाण न [आख्यान] १ कथन, निवेदन [वाटक] अखाड़ा (जीव ३)। सुत्तमाला ४५७) । 'त्थ पुं [°ार्थ] शब्दार्थ (अभि
(कुमा)। २ वार्ता,उपकथा (पउम ४८, स्त्री [सूत्रमाला] जपमाला (अणु३)। १५१) । पुट्ठिया स्त्री [पुष्ठिका] लिपि
७७)। अक्ख देखो अक्खा = आ + ख्या । अक्खइ
विशेष (सम ३५)। समास पुं[°समास] अक्खाणय न [आख्यानक] कहानी, वार्ता (सरण)।
१ अक्षरों का समूह । २ श्रुत-ज्ञान का एक | (उप ५६७ टी)। अक्खइय वि [आख्यात] उक्त, कथित | भेद (कम्म १, ७)।
अक्खाय वि [आख्यात] १ प्रतिपादित, (सरण)।
अक्ख ल पु[दे] १ अखरोट वृक्ष । २ न. कथित (सुपा ३६५) । २ न. क्रियापद (पएह अक्ख उहिणी देखो अक्खोहिणी (प्राकृ३०)। __ अखरोट वृक्ष का फल (पएण १६)।
२, २)। अक्खंड वि [अखण्ड] १ संपूर्ण । २
अक्खलिय वि [दे] १ जिसका प्रतिशब्द | अक्खाय न [अखात] हाथी को पकड़ने के अखण्डित । ३ निरन्तर, अविच्छिन्नः 'प्रक्ख
हमा हो वह, प्रतिध्वनित (दे १, २७)। लिए किया जाता गढ़ा, खड्डा (पाप)। एडपयाणेहि रहवीरपुरे गो कुमरो' ( सुपा २ आकुल, व्याकुल (सुर ४,८८)।
अक्खाया स्त्री [आख्याता] एक प्रकार की २६६)। अक्खलिय वि [अस्खलित] १ अबाधित,
जैन दीक्षा 'अक्खायाए सुदंसणो सेट्टी सामिणा अक्खंडल पुं[आखण्डल] इन्द्र (पान)। निरुपद्रव (कुमा)। २ जो गिरा न हो वह,
पडिबोहियो' (पंचू)। अक्खंडिअ वि [अखण्डित] १ संपूर्ण, | अपतित (नाट)।
अक्खि त्रि [अक्षि] प्रांख, नेत्र (हे १, ३३, खण्ड रहित (से ३, १२)। २ अविच्छिन्न, अक्खवाया स्त्री [दे] दिशा (दे १, ३५)। ३५ स २; १०४: प्रातः स्वप्न ६१)। निरन्तर (उर ८, १०)।
अक्खा सक [आ + ख्या] कहना, बोलना। अक्खिअ वि [आक्षिक] पासा से जूमा अक्खंत देखो अक्खा = प्रा+ख्या। वकृ. अक्खंत (सण; धर्म ३)। कवकृ. | खेलनेवाला, जुमाड़ी (दे ७, ८)। अक्खड सक [आ + स्कन्द] आक्रमण अक्खिज्जत (सुर ११, १६२)। कृ. अक्खिअ वि [आख्यात] प्रतिपादित, कथित करना, 'अक्खडइ पिया हिपए, अण्णं अक्खेअ, अक्खाइयेव्य (विसे २६४७; गा (श्रा १४)। महिलाअणं रमंतस्स' (गा ४४)। २४२)। हेकृ. अक्खाउं (दस ८ सत्त अक्खितर न [अक्ष्यन्तर] प्रांख का कोटर अक्खणवेल न [दे] १ मैथुन, संभोग।। ३ टी)।
(विपा १,१)।
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