________________
(४०) त-पाराधक = पाराहत (ठाणंगसूत्र-पत्र ३१७), सामायिक % सामातित (ठा० ३२२), विशुद्धिक % विशुद्धित (ठा० ३२२), अषिक =
अहित (ठा० ३६३), शाकुनिक = साउरिणत (ठा ३६३),नैषधिक = रणेसजित (म० ३६७), वीरासनिक = वीरासरिणत (ठा० ३६७), वधकि = वट्ठति (ठा० ३६८), नैरयिक = नेरतित (ठा० ३६६), सोमंतक = सीमंतत (ठा० ४५८), नरकात् = नरतातो (ठा० ४५८), माडम्बिक = माडंबित (ठा. ४५६), कौटुम्बिक = कौडुबित (ठा० ४५६), सचक्षुष्केण = सचक्खुतेणं (विपाकश्रुत-पत्र
५), कूणिक = कूरिणत (विपा० ५ टि), प्रन्तिकात् = अंतितातो (विपा० ७), राहसिकेन = रहस्सितेणं (विपा ४.१८) इत्यादि। य-कायिक = काइय, लोक = लोय वगैरह । २. दो स्वरों के बीच का असंयुक्त ग प्रायः कायम रहता है। कहीं-कहीं इसका त और य होता है; जैसे-पागम -
प्रागम, प्रागमन = प्रागमण, प्रानुगामिक = माणुगामिय, प्रागमिष्यत् = प्रागमिस्स, जागर = जागर, अगारिन् = अगारि, भगवन् =
भगवं प्रतिग = अतित (ठा० ३६७); सागर = सायर । ३. दो स्वरों के बीच के असंयुक्त च और ज के स्थान में त और य उभय ही होता है। च के उदाहरण, जैसे-नाराच =
णारात (ठा० ३५७), वचस् - वति (ठा० ३९८; ४५०), प्रवचन = पावतरण (ठा० ४५१), कदाचित् = कयाती (विपा० १७, ३०); वाचना = वायणा, उपचार = उवयार; लोच = लोय, प्राचार्य = पायरिय। ज के कुछ निदर्शन ये हैं-भोजिन् = भोति (सूम० २,. ६.१०), वन = वतिर (ठा० ३५७), पूजा = पूता (ठा० ३५८), राजेश्वर-रातीसर (ठा० ४५६), पात्मजः% प्रत्तते (विपा० ४ टि),
प्रजात = पयाय, कामध्वजा = कामज्या , पात्मज = अत्तय। ४. दो स्वरों का मध्यवर्ती त प्रायः कायम रहता है कहीं-कहीं इसका य होता है। यथा-वन्दते = वंदति, नमस्यति = नर्मसति,.
पयु'पास्ते = पज्जुवासति (सूम २, ७; विपा-पत्र ६), जितेन्द्रिय = जितिदिय (सूम २, ६,५), सतत = सतत (सूम १, १, ४, १२), भवति = भवति (ठा-पत्र ३१७), अंतरित = अंतरित (ठा० ३४६), धैवत = घेवत (ठा० ३६३), जाति = जाति, प्राकृति = प्रागिति, विहरति = विहरति (विपा-४), पुरतः -पुरतो, करोति = करेति (विपा० ६), ततः = तते (विपा० ६७८), संदिसतु = संदिसतु, संलपति = संलवति (विपा० ७, ८), प्रभृति = पभिति (विपा० १५; १६), करतल = करयल । स्वरों के बीच में स्थित द का द और त ही अधिकांश में देखा जाता है, कहीं-कहीं य भी होता है, जैसेद-प्रदिशः = पदिसो (माचा), भेद = भेद, अनादिकं = प्रणादिय (सूम २, ७), वदत् = वदमाण, नदति = रणदति, जनपद = जणवद,
वेदिष्यति = वेदिहिती (ठा-पत्र क्रमशः ३२१, ३६३, ४५८, ४५६) इत्यादि। त-यदा= जता, पाद = पात, निषाद= निसात, नदी = नती, मृषावाद = मुसावात, वादिक = वातित, मन्यदा अन्नता, कदाचितु =
कताती (ठा-पत्र क्रमश: ३१७, ३४६, ३६३, ३६७, ४५०, ४५१, ४५८, ४५९); यदि = जति, चिरादिक = चिरातीत
(विपा० पत्र ४) इत्यादि। य-प्रतिच्छादन = पडिच्छायण, चतुष्पद =चउप्पय वगैरह। ६. दो स्वरों के मध्य में स्थित के स्थान में प्रायः सर्वत्र व ही होता है; यथा-पापक = पावग, संलपति - संलवति,
सोपचार = सोवयार, प्रतिपात = प्रतिवात, उपनीत = उवरणीय, अध्युपपन्न -मझोववरण, उपगूढ = उवमूढ़, भाधिपत्य = माहेवञ्च,
तपक= तवय, व्यपरोपित = ववरोवित इत्यादि। ७. स्वरों के मध्यवर्ती य प्राए: कायम रहता है, अनेक स्थानों में इसका त देखा जाता है। जैसे
य-वायव - वायव, प्रिय=पिय, निरय = निरय, इन्द्रिय = इन्दिय, गायति = गायइ प्रभृति । त-- स्यात् = सिता, सामायिक = सामातित, कायिक = कातित, पालयिष्यन्ति = पालतिस्संति, पर्याय = परितात, नायक = णातग,
गायति = गातति, स्थायिन् % ठाति, शायिन् = साति, नैरयिक = नेरतित (ठा० पत्र क्रमशः ३१७, ३२२, ३२३, ३५७, ३५८,
३६३, ३६४, ३६७, ३६८, ३६६), इन्द्रिय = इन्दित (ठा० ३२२, ३५५) इत्यादि। ८. दो स्वरों के बीच के व के स्थान में व, त, और य होता है; यथा
व-वायव = वायव, गौरव = गारव, भवति = भवति, अनुविचिन्त्य = प्रणवीति (सूम १, १, ३, १३) इत्यादि। त-परिवार = परिताल, कवि = कति (ठा० पच क्रमशः ३५८, ३६३) इत्यादि। य-परिवर्तन = परियट्टण, परिवर्तना = परियट्टणा (ठा० ३४६) वगैरह। महाराष्ट्री में स्वर-मध्य-वर्ती असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य, व इन व्यजनों का प्रायः सर्वत्र लोप होता है और प्राकृतप्रश आदि प्राकृत-व्या रणों के अनुसार इन लुप्त व्यजनों के स्थान में अन्य कोई वर्ण नहीं होता। सेतुबन्ध, गाथासप्तशती और क रमञ्जरी आदि नाटकों की महाराष्ट्री भाषा में भी यह लक्षण ठीक-ठीक देखने में
www.jainelibrary.org
For Personal & Private Use Only
Jain Education International