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में ग्रहण करना, अर्थात 'अर्धमागध्या: यह व्युत्पत्ति कर 'जिसका अर्थाश मागधी भाषा यह अर्धमागधी' ऐसा करना । वस्तुतः अर्धमागधी शब्द की न वह व्युत्पत्ति ही सत्य है और न यह अर्थ ही अर्धमागधी शब्द की वास्तविक व्युत्पत्ति है 'अर्धमगधस्येयम्' और इसके अनुसार इसका अर्थ है 'मगध देश के अर्धाश की जो भाषा वह अर्धमागधी' । यही बात ख्रिस्त की सातवीं शताब्दी के ग्रन्थकार श्रीजिनदासगणि महत्तर ने निशीथ नामक पथ में पोमयागहनासानिययं वद सुल" इस उल्लेख के 'अर्धमागध' शब्द की व्याख्या के प्रसङ्ग में इन स्पष्ट शब्दों में कही है : " मगहद्धविसयभासानिबद्ध श्रद्धमाग" अर्थात् मगध देश के अर्ध प्रदेश की भाषा में निबद्ध होने के कारण प्राचीन सूत्र 'अर्धमागध' कहा जाता है ।
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अर्धमागधी शब्द की
संगत राति
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परन्तु अर्धमागधी का मूल उत्पत्ति स्थान पश्चिम मगन अथवा मगध और शूरसेन का मध्यवर्ती प्रदेश (अयोध्या) होने पर भी जैन अर्धमागधी में मागची और शौरसेनी भाषा के विशेष लक्षण देखने में नहीं आते। महाराष्ट्री के साथ ही इसका अधिक सादृश्य नजर आता है। यहाँ पर प्रश्न होता है कि इस सादृश्य च कारण क्या है ? सर ग्रियर्सन ने अपने प्राकृत भाषाओं के भौगोलिक विवरण में यह स्थिर किया है कि जैन अर्धमागधी मध्यदेश शूरसेन ) और मगध के मध्यवर्ती देश ( अयोध्या) की भाषा थी एवं आधुनिक पूर्वीय हिन्दी उससे उत्पन्न हुई है । किन्तु हम देखते हैं कि अर्धमागधी के लक्षणों के साथ मागधी, शौरसेनी और आधुनिक पूर्वीय हिन्दी का कोई सम्बन्ध नहीं है, परन्तु महाराष्ट्री प्राकृत और आधुनिक मराठी भाषा के साथ उसका सादृश्य अधिक है। इसका कारण क्या ? किसीने अभीतक यह ठीक-ठीक नहीं बताया है। यह सम्भव है, जैसा हम पाटलिपुत्र के सम्मेलन के प्रसंग में ऊपर कह आये हैं, चन्द्रगुप्त के राजस्वाल में (ख्रिस्त-पूर्व ३१० ) बारह वर्षों के अकाल के समय जैन मुनि संघ पाटलीपुत्र से दक्षिण की ओर गया था। उस समय वहाँ के प्राकृत के प्रभाव से अंग-ग्रन्थों की भाषा का कुछ-कुछ परिवर्तन हुआ था । यही महाराष्ट्री प्राकृत का आप प्राकृत के साथ सादृश्य का कारण हो सकता है ।
इ-स्थान श्रौर उस 'महाराष्ट्री' के
जैन अर्धमागधी का उत्पत्ति
-साथ सादृश्य का कारण
उत्पत्ति-समय
सर आर. जि. भाण्डारकर जैन अर्थमागची का उत्पत्ति समय ख्रिस्तीय द्वितीय शताब्दी मानते हैं। उनके मत में कोई भी साहित्यिक प्राकृत भाषा लिख की प्रथम या द्वितीय शताब्दी से पहले की नहीं है। शायद इसी मत का अनुसरण कर डॉ. सुनीविकुमार चटर्जी ने अपनी Origin and Development of Bengalee Language नामक पुस्तक में ( Introduction, page 18 ) समस्त नाटकीय प्राकृत भाषाओं और जैन अर्धमागधी का उत्पतिकाल ख्रिस्तीय तृतीय शताब्दी स्थिर किया है । परन्तु त्रिवेन्द्रम् से प्रकाशित भास-रचित कहे जाते नकों का निर्माण समय अन्ततः ख्रिस्त की दूसरी शताब्दी के बाद का न होने से और अश्वघोष-कृत बौद्ध-धर्म-विषयक नाटकों के जो कतिपय अंश डॉ. ल्युडर्स ने प्रकाशित किए हैं उनका समय ख्रिस्त की प्रथम शताब्दी निश्चित होने से यह प्रमाणित होता है कि उस समय भी नाटकीय प्राकृत भाषाएँ प्रचलित थीं और डॉ. ल्युडर्स ने यह स्वीकार किया है कि अश्वघोष के नाटकों में जैन अर्धमागची भाषा के निदर्शन हैं। इससे जैन अर्धमागधी की प्राचीनता का वह भी एक विश्वस्त प्रमाण है । इसके अतिरिक्त, डॉ. जेकोबी जैन सूत्रों की भाषा और मथुरा के शिलालेखों (ख्रिस्तीय सन् ८३ से १७६) की भाषा से यह अनुमान करते हैं कि जैन अंग-प्रन्थों की अर्धमागधी का काल खिस्त-पूर्व चतुर्थ शताब्दी का शेष भाग अथवा स्ति-पूर्व तृतीय शताब्दी का प्रथम भाग है। हम डॉ. जेकोबी के इस अनुमान को ठीक समझाते हैं जो पाटलिपुत्र के उस सम्मेलन से संगति रखता है जिसका उल्लेख हम पूर्व कर चुके हैं ।
संस्कृत के साथ महाराष्ट्री के जो प्रधान प्रधान भेद हैं, उनकी संक्षिप्त सूची महाराष्ट्री के प्रकरण में दी जायगी । यहाँ पर महाराष्ट्री से अर्धमागधी की जो मुख्य-मुख्य विशेषताएँ हैं उनकी संक्षिप्त सूची दी जाती है। उससे अर्धमागधी के लक्षणों के साथ महाराष्ट्री के लक्षणों की तुलना करने पर यह अच्छी तरह ज्ञात हो सकता है कि लक्षण महाराष्ट्री की अपेक्षा अर्धमागधी की वैदिक और लौकिक संस्कृत से अधिक निकटता है जो अर्थमागधी की प्राचीनता का एक श्रेष्ठ प्रमाण कहा जा सकता है ।
वर्ण-भेद
१. दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त क के स्थान में प्रायः सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और य होता है; जैसेग—प्रकल्प = पगप्पः श्राकर = नागर; आकाश = प्रागासः प्रकार पगारः श्रावक = सावगः विवर्जक विवजग; निषेवक = णिसेवग; लोक = लोग; प्राकृति = आगइ ।
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