________________
अत्थयारिआ-अत्थुड
पाइअसद्दमहण्णवो डूब गया, अदृश्य दृपा (प्रोध ५०७, महा ज्ञान; जैसे 'देवतत्त पुष्ट है और दिन में नहीं । (सुर २, १४२)। त्ता स्त्री [°ता] सत्व, सुपा १५५) । २ हीन, हानि-प्राप्त (ठा ४,३) । खाता है इस वाक्य से 'देवदत्त रात में खाता हयाती (उप पृ ३७४) । त्तिनय पुं[इतिअत्थयारिआ स्त्री [द] सखी, वयस्या (दे १ है ऐसा अनुक्त अर्थ का ज्ञान (उप ६६८)। नय] द्रव्याथिक नय (विसे ५३७) । 'नत्थि
अत्थाह वि [अस्ताघ] १ अथाह, थाह-रहित, वि ["नास्ति] सप्तभङ्गी का तीसरा भङ्गअत्थर सक [आ + स्तु] बिछाना, शय्या गंभीर (गाया १, १४) । २ नासिका के ऊपर
प्रकार, स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान करना, पसारना । अत्थरइ (उव) । संकृ. का भाग भी जिसमें डूब सके इतना गहरा
और परकीय द्रव्यादि की अपेक्षा अविद्यअत्थरिऊग (महा) जलाशय (बृह ४)। ३ पुं. अतीत चौबीसी
मान वस्तु अस्थरण न [आस्तरण] १ बिछोना, शय्या | में भारत में समुत्पन्न इस नाम के एक तीर्थंकर
'मह देसो सब्भावे देसोसब्भावपजवे निग्रयो। (से १४, ५०) । २ बिछाना, शय्या करना देव (पव ६)।
तं दविप्रमत्थिनत्थि अ, आएसविसेसि जम्हा' (विसे २३२२)। अत्थाह वि [दे] देखो अत्थग्घ (दे १,५४,
(सम्म ३७)। अत्थरय वि [आस्तरक] १ आच्छादन करने
| नात्यप्पवाय न [ नास्तिप्रसाद बारहवें
भवि)। वाला (राय)। २ पुं. बिछौने के ऊपर का अस्थि वि [अर्थिन] १ याचक, मांगनेवाला
जैन अङ्ग-ग्रन्थ का एक भाग, चौथा पूर्व (सम वस्त्र (भग ११, ११; कप्प)।
(सुर १०,१००)। २ धनी, धनवाला (पंचा)। अत्थरय वि [अस्तरजस्क] निर्मल, शुद्ध (भग | ३ मालिक; स्वामी (विसे)। ४ गरजू, चाहने
अत्यिक न [आस्तिक्य] आस्तिकता, आत्मा११, ११)।
परलोक आदि पर विश्वास (श्रा .; पुप्फ वाला; अत्यवण देखो अस्थमण (भवि) । 'घणो धणत्थियाणं, कामत्थीणं च
११०)। अत्थसिद्ध पुं [अर्थसिद्ध] पक्ष का दशवों
सव्वकामकरो।
। अत्थिय देखो अस्थि = प्रथिन् (महा औप) । दिवस, दशमी तिथि (सुज १०, १४)। सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिणदेसिनो धम्मो ।'
अस्थिय वि [अर्थिक धनी, धनवान् (हे २, अत्था देखो अट्ठा = प्रास्था।
१५६)।
(महा)। अत्था ।सक [ अस्ताय ] अस्त होना, अत्थि न [अस्थि हाड़, हड्डी (महा)।
अस्थिय न [अस्थिक] १ हड्डी, हाड़ । २ पुं. अत्थाअ डूब जाना, अदृश्य होना । अत्थाइ;
वृक्ष-विशेष । ३ न. बहु बीजवाला फल-विशेष प्रत्थाए (पउम ७३, ३५) । अत्थाप्रति (से अस्थि अ[अस्ति] १ सत्त्व-सूचक अव्यय है,
(पराण १)। ७, २३) । वकृ. अत्थाअंत (से ७, ६६) । 'प्रत्थेगइया मुंडा भवित्ता अगाराप्रो अरणगारियं
अत्थिय वि [आस्तिक] आत्मा, परलोक पव्वइया' (प्रौप); 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई अत्थाअ वि [अस्तमित] अस्त हुआ, डूबा
आदि की हयाती पर श्रद्धा रखनेवाला (जीव ३) । २ प्रदेश, अवयवः 'चत्तारि अत्थिहुआ 'तावधिय दिवसयरो प्रत्थानो विगयकि
(धर्म २)। काया' (ठा ४, ४)। अवत्तव्व वि [°अवरणसंधानो' (पउम १०,६६से ६,५२)।
| अस्थिर देखो अथिर (पंचा १२) ।
क्तव्य सप्तभङ्गी का पांचवाँ भङ्ग, स्वकीय अत्थाइया स्त्री [दे] गोष्ठी-मण्डप (स ३६) ।
अत्थीकर सक [अर्थी + कृ] प्रार्थना करना, द्रव्य आदि की अपेक्षा से विद्यमान और एक अत्थाण न [आस्थान] सभा, सभा-स्थान
याचना करना । प्रत्थीकरेइ (निचू ४)। वकृ. ही साथ कहने को अशक्य पदार्थ; (सुर १,८०)।
अत्थीकरंत (निचू ४)। 'सब्भावे पाइट्टो देसो देसो अउभयहा जस्स। अत्थाणिय वि [अस्थानिन] गैर-स्थान में तं अस्थिप्रवत्तव्वं च होइ दविनं विप्रप्पवसा'।
अत्थीकरण न [अर्थीकरण] प्रार्थना, याचना लगा हुआ, 'प्रत्यारिणयनयहि (भवि)।
(सम्म ३८)।
(निचू ४)। अत्याणी स्त्री [आस्थानी] सभा-स्थान (कुमा)। काय [काय] प्रदेशों का प्रवयवों का अत्थु सक [आ+स्तु] बिछाना, शय्या करना। अत्थाणीअ वि [आस्थानीय] सभा-संबन्धी समूह (सम १०)। °णत्थवत्तव्व वि
कर्म. अत्थुव्वइ, कवकृ. अत्थुव्वंत (विसे (कुप्र ७८)। [ नास्त्यवक्तव्य] सप्तभङ्गी का सातवाँ
२३२१)। अत्थाम वि [अस्थामन् बल-रहित, निर्बल भङ्ग, स्वकीय द्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान,
अत्थुअ वि [आस्तृत] बिछाया हुआ (पान (गाया १,१)।
परकीय द्रव्यादि की अपेक्षा से विद्यमान और विसे २३२१)। अत्थार पुं [दे] सहायता, साहाय्य (दे १,६; एक ही समय में दोनों धमों से कहने को अत्थुग्गह पुं[अर्थावग्रह] इन्द्रियों और मन णाम)।
अशक्य पदार्थ;
। द्वारा होनेवाला ज्ञान-विशेष, निर्विकल्पक ज्ञान अत्यारिय पुं [दे] नौकर, कर्मचारी (वव ६)। 'सब्भावासब्भावे, देसो देसो प्र उभयहा जस्स।। (सम ११, ठा २, १)। अत्थावग्गह देखो अस्थुग्गह (पएण ५)। तं अत्थिणत्यवत्तव्वयं च दवित्रं विअप्पवसा' अथुग्गहण न [अर्थावग्रहण] फल का निश्चय अत्यावत्ति स्त्री [अर्थापत्तिअनुक्त अर्थ को
(सम्म ४०)। (भग ११, ११)। अटकल से समझना, एक प्रकार का अनुमान-! त्त न [व] सत्व, विद्यमानता, हयाती | अत्थुड वि [दे] लघु, छोटा; (दे १, ६)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org