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पाइअसहमहण्णवो
अत्त?--अत्थमिय बन्धन हो वह । २ पुं. प्राधाकर्म दोष (पिंड अत्तुक्करिस।[आत्मोत्कर्ष] अभिमान, अत्थ न [अस्त्र] हथियार, प्रायुध (पउम ८, ६५)V
अत्तुक्कोस ) गर्वः 'तम्हा अत्तुकरिसो वजे- ५०; से १४, ६१)TV अत्तट्ट वि [आत्मार्थ] १ आत्मीय, स्वकीय यवो जइजणेणं' (सूत्र १, १३; सम ७१) अत्थ सक [अर्थय ] मांगना, याचना करना, (धर्म २)। २ . स्वार्थ, 'इह कामनियत्तस्स अत्तक्कोसिय वि [आत्मोत्कर्षिक] गर्विष्ठ, प्रार्थना करना, विज्ञप्ति करना । अत्थयए अत्तट्ठ नावरज्झई' (उत्त ८) अभिमानी (प्रौप)।
(निचू ४) अत्तद्रिय वि [आत्मार्थिक] १ आत्मीय ।२ अत्तय पुंआत्रेय] १ अत्रि ऋषि का पुत्र
अत्थ अक [स्था] बैठना । अत्थइ (प्रारा ७१)। जो अपने लिए किया गया हो, ‘उवक्खडं (पि १०; ८३)। २ एक जैन मुनि (विसे
अत्थ। देखो अत्त - अत्र (कप्प; पि २६३, भोयण माहणाणं अत्तट्टियं सिद्धमहेगपक्खं' २७६९)।
अत्थं । ३६१) (उत्त १२)IV
अत्थंडिल वि [अस्थण्डिल] साधुनों के रहने अत्तण । देखो अप्प = आत्मन् (मुच्छ । अत्तो प्र[अतस्] १ इससे, इस हेतु से
के लिए अयोग्य स्थान, क्षुद्र जन्तुओं से व्याप्त अत्तणअj२३६)। केरक वि [आत्मीय] (गउड) । २ यहां से (प्रामा)
स्थान (प्रोघ १३) । निजी, स्वकीय (नाट; पि ४०१)IV
अत्थ देखो अद्र अर्थ (कुमा; उप ७२८ अत्तण ! (शौ) वि [आत्मीय] स्वकीय,
अत्यंत वकृ [अस्तं यत् ] अस्त होता हुआ अत्तणक अपना, निजका (पि २७७ नाट) ८८४ टी; जी १, प्रासू ६५; गउड); 'अरोइ
(वजा २२) अत्तणिज्जिय वि [आत्मीय] स्वकीय (ठा अत्थे कहिए विलावो' (गोय ७); 'प्रत्थसहो
अत्थकिरिआ स्त्री [अर्थक्रिया] वस्तु का फलस्थोय' (विसे १०३६; १२४३)। जोणि
व्यापार, पदार्थ से होनेवाली क्रिया (धर्मसं अत्तणीअ (शौ) ऊपर देखो (स्वप्न २७) ।
स्त्री [योनि धनोपार्जन का उपाय, साम, दाम, दण्ड रूप अर्थ-नीति (ठा ३,३)। णय
४६६) अत्तमाण देखो आवत्त = या + वृत् ।।
अत्थक्क न [दे] १ अकारड, अकस्मात्, बेअत्तय पुं [आत्मज] पुत्र, लड़का। या स्त्री पुं['नय] शब्द को छोड़ अर्थ को ही मुख्य
समय (उप ३३० से ११, २४; था ३० [जा पुत्री, लड़की (विपा १. १) वस्तु माननेवाला पक्ष (अण)। सत्य न
भवि); 'अत्थकगजिउभंतहित्थहिना पहिसअत्तव्व वि [अत्तव्य] खाने लायक, भक्ष्य [शास्त्र] अर्थशास्त्र, संपत्ति-शास्त्र (णाया १,
जाआ' (गा ३८६)। २ वि. अखिन्न (वजा (नाट)
१)। वइ पुं[°पति] १ धनी । २ कुबेर
(वव ७)। वाय पुं[वाद] १ गुणवर्णन । अत्ता स्त्री [दे] १ माता, माँ (दे १, ५१;
६)। ३ क्रिवि. अनवरत, हमेशा (गउड)IV २ दोष-निरूपण । ३ गुण-वाचक शब्द। ४ चारु ७०) । २ सासू (दे १, ५१, गा ६६७;
अत्थग्घ वि [दे] १ मध्य-वर्ती, बीच काः दोष-वाचक शब्द (विसे)। °वि वि [वित् ] 'सभए अत्थग्घे वा अोइराणेसुं धरणं पट्ट' (प्रोष हेका ३०)। ३ फूफा। ४ सखी (दे १,५१)
३४)। २ अगाध, गंभीर । ३ न. लम्बाई, अत्ता देखो जत्ता (प्रति ८२)
अर्थ का जानकार (पिंड १ भा)। सिद्ध वि [सिद्ध] १ प्रभूत धनवाला (जं ७) । २
आयाम । ४ स्थान, जगह (दे १, ५४)। अत्ताण देखो अत्त = आत्मन् (पि ४०१)। अत्ताण वि [अत्राण] १ शरण-रहित, रक्षक
पुं. ऐरवत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (तित्थ)। अत्थण न [अर्थन] प्रार्थना, याचना (उप
| प.स्वत क्षेत्र के एक भावी जिनदेव (तित्य वजित (पण्ह १, १)। २ पुं. कन्धे पर लाठी
लियन ािलीक] धन के लिए असत्य | ७२८ टी)। रखकर चलनेवाला मुसाफिर । ३ फटे-टूटे कपड़े
बोलना (परह १, २)। लोयण न अत्थणिऊर पुन [अर्थनिपूर] देखो अच्छपहनकर मुसाफिरी करनेवाला यात्री (बृह १)
[लोचन] पदार्थ का सामान्य ज्ञान (प्राचू | णिउर (अणु ६६) अत्ति पुं[अत्रि] इस नाम का एक ऋषि
१)। लोयण न [लोकन] पदार्थ का अत्थणिऊरंग पुन [अर्थनिपूराङ्ग] देखो (गउड) निरीक्षण,V
अच्छणिउरंग (अणु ६६) अत्ति स्त्री [अत्ति] पीड़ा, दुःख (कुमा; सुपा 'अत्थालोयण-तरला,इयरकईणं भमंति बुद्धीग्रो। अत्थथि वि [अर्थार्थिन् ] धन की इच्छा१८५)। हर वि [हर] पीड़ा-नाशक, दुःख अत्थच्चेय निरारम्भमेति हिययं कइन्दाणं ॥ वाला (उव १३६)। का नाश करनेवाला (अभि १०३) । (गउड)।
अस्थम अक [अस्तम् + इ] अस्त होना, अदृश्य अत्तिहरी स्त्री [दे] दूती, समाचार पहुंचाने- अत्थ पु [अस्त] १ जहां सूर्य अस्त होता है। होना । अत्थमइ (पि ५५८)। वकृ. अस्थमंत वाली स्त्री (षड् )
वह पर्वत (से १०, १०))। २ मेरु पर्वत (पउम ८२, ५६)। अत्तीकर सक [आत्मी + कृ] अपने अधीन (सम ६५)। ३ वि. अविद्यमान (णाया १, | अत्थमण नअस्तमयन अस्त होना, अदृश्य करना, वश करना। अत्तीकरेइ; वकृ. अत्ती- १३)। "गिरि पुं[गिार] अस्ताचल (सुर होना (प्रोध ५०७; से ८, ८५; गा २८४)। करंत (निचू ४)।
३, २७७, पउम १६. ४५)। सेल पुं | अत्थमाविय वि [अस्तमापित] अस्त करअत्तीकरण न [आत्मीकरण] अपने वश [शैल] प्रस्ताचल (सुर ३, २२६)।चल वाया हुआ (सम्मत्त १६१)। करना (निचू ४) ।
पुं [चल] अस्त-गिरि (कप्पू)। अस्थमिय वि [अस्तमित] १ प्रस्त हुआ,
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