________________
थोडी शब्दार्थचर्चा
मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश
'हानि' के 'नुकसान' एवो अर्थ पण लई शकाय : 'मार्गे चालतां गजराज जराक घसाय तेनाथी गृहस्थनां घर खखडी पडे छे, तेम वहाला ! तमारा अडवाथी हानि / नुकसान थाय छे.' आगळ कृष्ण नेत्र नाखे त्यां प्राण हरे छे एवी वात छे. तेम एनो हाथ अडवाथी पण हानि थवानुं ज अभिप्रेत होय. हाथीनुं दृष्टांत पण ए ज सूचवे छे.
रूपच. मां संपादके 'अकाज' नो अर्थ 'व्यर्थ' आप्यो छे. पण ए अर्थ संदर्भमां बंधबेसतो नथी. संदर्भ एवो छे के कुंवरी भोगमग्न होवानी वात राजा पासे आवे छे त्यारे ए गुस्से थईने बोले छे के रे रे किसिउ अकाज ? देखीती रीते ज अहीं 'अघटित कार्य, निंद्य कार्य' एवो अर्थ छे : 'आ केवुं अघटित कार्य ?'
५७२
विराप. मां 'अकाजिनो अर्थ संपादकोए 'अकारण' आप्यो छे. गुर्जरा. मां पण आकृति छपायेली छे अने त्यां पण 'अकाजि' नो अर्थ ' without any purpose ' आपेलो छे. बन्नेमां लेवायेलो अर्थ शंकास्पद लागे छे.
संदर्भ एवो छे के कीचके वर्तावला त्रास पछी द्रौपदी विराट राजाने फरियाद करतां कहे छे के ईई हउं इम अकाजि पीडी / विगोइ. कीचके द्रौपदीने त्रास आप्यो ते अकारण, कोई हेतु विना के अघटित कार्यथी, अघटित रीते, खराब रीते, खोटुं करीने ? "एणे मने आम खोटी रीते, खराब रीते पजवी" एम अर्थ होवानो वधारे संभव छे.
८. अखत्र, अखंत्र, अखतर, खत्र
मध्यकाळमां आ शब्द निंद्य, खराब, अयोग्य, अनिष्ट' एवा अर्थोमां वपरायेलो देखाय छे. प्राकृत कोश 'अखत्त (अक्षात्र) ' 'क्षत्रियधर्मथी विरुद्ध, जुलम' एवा अर्थमां नोंघे छे. पण 'क्षत्रियधर्मथी विरुद्ध'मांथी 'निंद्य, खराब' एवो अर्थ विकसी शके. ए
पात्र छे के मध्यकालीन गुजरातीमां 'अखत्र' के 'अखंत्र' क्षात्रधर्मना संदर्भमां ज नहीं, व्यापक, सर्वसामान्य संदर्भमां वपरायो छे.
गुर्जरा. अंतर्गत वस्तिगकृत 'चिहुंगति चोपाई' मां एक पंक्ति आम मळे छे :
खत्रअत्र कीधां सवि वार, डोकरनी कोइ न करइ सार.
वृद्धावस्थानी स्थितिना वर्णननी आ पंक्ति छे. देखीती रीते, माणसे जिंदगीमां करेला सारांनरसां कार्योंनो अहीं उल्लेख छे. 'खत्र' एटले 'सारं, योग्य', 'अखत्र' एटले 'खराब, अयोग्य'. संपादकोए अनुक्रमे 'good' अने ' improper' अर्थो आप्या छे ते बराबर छे.
सिंहा (म). मां संपादके 'अखत्र, अखंत्र'नो 'क्षत्रियने न छाजे एवं कार्य' एवो स्थूळ शब्दार्थ कर्यो छे, तेमां ए वात वीसरी जवाई छे के आ शब्द अहीं क्षत्रिय नहीं, ब्राह्मणने संदर्भे वपरायो छे. लोभ लगइ अखंत्र ज किउं तथा परीक्षा जोई, नवि करूं अवत्र बन्नेमा 'निंद्य, खराब कर्म' एवो सामान्य अर्थ स्पष्ट छे : "लोभने लीधे
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org